उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) एक अंतिम न्यायिक उपाय : भारत में विधि का इतिहास-99
इन दिनों यह बात चर्चा में है कि जब भोपाल त्रासदी के अभियुक्तों के विरुद्ध लगाए गए धारा 304 भाग दो दं.प्र.सं. के आरोपों को भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय से धारा 304-ए के साधारण अपराध के आरोप में परिवर्तित कर चुका था और उस के बाद उस निर्णय के पुनर्विचार के लिए प्रस्तुत याचिका निरस्त कर दी गई थी तो अब क्या कोई ऐसा उपाय है जिस से उस निर्णय पर फिर से विचार किया जा सके? वास्तविकता यह है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के विरुद्ध अपील का उपाय उपलब्ध नहीं है। यह सही भी है। आखिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय प्रदान कर देने पर कोई उपाय नहीं है। वह निर्णय अंतिम ही होना चाहिए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में कोई दोष छूट जाने पर उस पर पुनर्विचार किया जा सकता है। लेकिन कभी अपवाद स्वरूप कोई परिस्थिति ऐसी भी उत्पन्न हो सकती है जहाँ न्याय का गला ही घुट रहा हो, या किन्हीं परिस्थितियों के कारण किसी निर्णय से विपरीत रूप से प्रभावित होने वाला किसी पक्ष की यह धारणा बन रही हो कि न्यायाधीशों ने पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर निर्णय दिया है तब कुछ तो उपाय होना चाहिए।
वर्ष 2002 में ऐसी ही परिस्थिति का सामना भारत के सर्वोच्च न्यायालय को करना पड़ा जब रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा व अन्य के मामले के साथ कुछ अन्य रिट याचिकाएँ उस के सामने प्रस्तुत हुईं। ये सभी याचिकाएँ इस न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष तब प्रेषित की गई थीं, जब उसे रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा व अन्य के मामले में एक तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा भेजा गया यह प्रश्न निर्णयार्थ उपस्थित हुआ था कि क्या किसी रिट याचिका की सुनवाई की जा कर यह न्यायालय अपने ही किसी निर्णय को शून्य और अकृत घोषित कर सकता है?
इस प्रश्न पर विचार के बाद इस विस्तारित पीठ ने पाया कि कुछ विशेष परिस्थितियों में न्यायालय द्वारा पुनर्विचार याचिका निरस्त कर दिए जाने के उपरांत भी उपचारात्मक याचिका प्रस्तुत की जा सकती है और उस पर विचार किया जा सकता है। इस मामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि …….
यह अदालत, अपनी प्रक्रिया का दुरुपयोग और न्याय का गला घोंटे जाने से रोकने के लिए, अपनी निहित शक्ति (Inherent Power) का प्रयोग करते हुए फिर से अपने निर्णय पर विचार कर सकता है।
इस न्यायालय की निहित शक्ति के तहत एक ऐसी उपचारात्मक याचिका पर सुनवाई करने के लिए क्या क्या आवश्यकताएँ हो सकती हैं? जिस से कि एक उपचारात्मक याचिका की आड़ में निहित शक्ति के अंतर्गत एक दूसरी पुनर्विचार याचिका के लिए सुप्रीम कोर्ट के द्वार न खुल जाएँ और उन की बाढ़ न आ जाए। यह एक सामान्य बात है कि बहुत ही मजबूत कारण मौजूद नहीं होने पर सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही एक आदेश पर पुनर्विचार के लिए एक उपचारात्मक याचिका स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जब कि पुनर्विचार याचिका के निरस्त हो जाने पर निर्णय पहले ही अंतिम हो चुका हो। यह न तो उचित है और न ही संभव है कि एक एक कर के वे सभी कारण बताए जाएँ जिन के आधार पर एक उपचारात्मक याचिका को स्वीकार किया जा सकता हो।
फिर भी, हमें लगता है कि एक याचिकाकर्ता राहत के लिए हकदार हो सकता है यदि वह (1) उस प्रकरण में पक्षकार नहीं था और निर्णय उस के हितों को प्रतिकूल रीति से प्रभावित कर रहा है। यदि वह पक्षकार होता तो उसे प्रकरण की सूचना दी जाती और उसे सुMore from my site
4 टिप्पणियाँ
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बहुत सही जानकारी, लेकिन जब नेता ही कमीने निकले तो …
Tuesday, June 22nd 2010 at 9:29 AM |
बहुत अच्छी जानकारी। भोपाल त्रासदी पर जस्टिस अहमदी की भूमिका को आप किस तरह से देखते हैं? विशेषकर जबकि उन के एक प्रायोजित निर्णय नें न्याय के सारे रास्ते ही बंद कर दिये हों।