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अपराध कानून में लिव-इन-रिलेशनशिप

लिव-इन-रिलेशनशिप  के सम्बन्ध में तीसरा खंबा पर पिछले आलेख “लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस”  तथा  अनवरत के आलेख “लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है” पर विभिन्न प्रकार के विचार टिप्पणियों के रूप में आए हैं। अनेक प्रश्न उठे हैं। सभी प्रश्नों पर एक साथ विचार किया जाना न तो संभव है और न ही उपयुक्त  प्रतीत होता है। ऐसी परिस्थिति में इस विषय पर सिलसिलेवार विचार किया जाना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। मैं सभी टिप्पणीकारों से इस में सहयोग की आशा करते हुए अपनी बात आरंभ करना चाहता हूँ। मेरी कोशिश रहेगी कि विमर्श में मैं उठे हुए प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करूँ। मेरा यह भी प्रयत्न रहेगा कि मैं मनोगतवादी तरीके से बात न करूँ।

पहला सवाल काबिल टिप्पणीकार पाठक श्री जी. विश्वनाथ ने यह रखा कि लिव-इन-रिलेशनशिप को हम हिन्दी में क्या कहें? इस का उत्तर प्रश्न उठने के पूर्व ही मैं दे चुका था। अनवरत के आलेख में मैं इसे सहावासी-रिश्ता कह चुका हूँ। मेरे विचार में इस से उपयुक्त शब्द नहीं हो सकता। आप भी कोई नाम इस के लिए सुझा सकते हैं। फिलहाल इसी से काम चलाते हैं।

ऐसा लग सकता है कि मानव समाज में विवाह के मौजूदा कानूनी रूप हमेशा से चले आ रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है।  विवाह की संस्था के अनेक रूप हमें देखने को मिलते हैं। पुरातन रूपों में से अनेक बिलकुल विलुप्त हो चुके हैं अथवा दुनियाँ के केवल उन आदिवासी समाजों में मिलते हैं जहाँ अभी शेष दुनिया से संपर्क न्यूनतम है। हमें विश्व साहित्य की पुस्तकों में ही अनेक रूप देखने को मिल जाते हैं। दोनों भारतीय महाकाव्यों रामायण और महाभारत में ही इन के दर्शन किए जा सकते हैं। द्रोपदी का पांच भाइयों की पत्नी होना पूरी कथा में बहुत निन्दनीय रूप में नहीं देखा जाता है। जिस से पता लगता है कि विवाह का वह रूप तब नया नहीं था और चौंकाने वाला भी नहीं था। वहीं भीम का हिडिम्बा के साथ रिश्ते को सहावासी रिश्ता ही कहा जा सकता है। क्यों कि वहाँ हिडिम्बा व भीम एक दूसरे से किसी प्रकार के दायित्व की आशा नहीं रखते। इस रिश्ते से एक पुत्र भी उत्पन्न होता है और उसे उन के पुत्र के रूप में मान्यता मिलती है। दूसरी ओर रामायण में दशरथ के तीन रानियाँ हैं, लेकिन राम एक पत्नीव्रती हैं वे एक पत्नी के लिए रावण से युद्ध करते हैं। लंका का तख्ता पलट देते हैं। कुछ दिन रावण के आवास में रहने के कारण सीता पर उंगलियाँ उठती हैं और राम उन का त्याग कर देते हैं। अश्वमेध यज्ञ के लिए भी दूसरा विवाह नहीं करते सीता की सोने की मूर्ति बनाते हैं। दूसरी ओर बालि अपने छोटे भाई की पत्नी पर अधिकार कर लेता है और राम उसे मृत्युदंड देते हैं। बाद में छोटा भाई विभीषण बड़े भाई की पत्नी को अपना लेता है। खैर ये सब महाकाव्यों की बातें हैं।

विवाह संस्था निश्चित रूप से मानव समाज में बहुत देर से अस्तित्व में आया है। इस के विभिन्न रूपों और उन के विकास पर हम किसी और अवसर पर बात कर सकते हैं। अभी सीधे विषय पर आया जाए। आजाद भारत में सभी विवाह के सभी परंपरागत और धर्मसम्मत रूपों को मान्यता दी गई है। हिन्दू विवाह पद्धति में बहुपत्नी विवाह आजादी के बाद तक प्रचलित और कानून सम्मत था, 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम बना जो 18 मई 1955 को लागू हो गया। इस कानून ने पहली बार एक पत्नित्व को स्थापित किया अब कोई भी हिन्दू दूसरा विवाह नहीं कर सकता था। इस कानून को बौद्धों, जैनों, और सिखों पर भी लागू किया गया। मुस्लिम, ईसाई पारसी और ज्यू धर्मावलंबियों तथा अनुसूचित जनजातियों को इस से अलग रखा गया और उन लोगों को भी इस से पृथक रखा गया जो रीति रिवाजों के कानून से शासित होना साबित कर सकता था। कुल मिला कर आजाद भारत ने एक स्त्री और पुरुष के अंतरंग रिश्ते को विवाह की संस्था में बंधा पाया जो भिन्न प्रकार की हो सकती थीं। लेकिन ऐसी बात नहीं थी कि उस वक्त के कानून के अनुसार सहावासी रिश्तों की कानून के अनुसार गुंजाइश नहीं थी, या वह कोई दंडनीय अपराध रहा हो।

भारतीय दंड संहिता (I.P.C.) में विवाह से संबंधित अपराधों के खण्ड में दो प्रमुख अपराधों को छोड़ कर अन्य अपराध इस विषय में कोई रोशनी नहीं डालते। यो दोनों अपराध धारा 494 और 497 में दिए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं-

भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के द्वारा द्वि-विवाह (Bigamy) को अपराध बनाया गया है जो इस प्रकार है….

494. पति या पत्नी के जीवनकाल में पुनः विवाह करना – जो कोई पति या पत्नी के जीवित होते हुए किसी ऐसी दशा  में  विवाह करेगा जिस से ऐसा विवाह इस कारण शून्य है कि वह ऐसे पति या पत्नी के जीवनकाल में होता है, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिस की अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

अपवाद – इस धारा का विस्तार किसी ऐसे व्यक्ति पर नहीं है जिस का ऐसे पति या पत्नी के साथ विवाह किसी सक्षम अधिकारिता के न्यायालय द्वारा शून्य घोषित कर दिया गया हो।

और न किसी ऐसे व्यक्ति पर है जो पूर्व पति या पत्नी के जीवनकाल में विवाह कर लेता है, यदि ऐसा पति या पत्नी उस पश्चातवर्ती विवाह के समय ऐसे व्यक्ति से सात वर्ष तक निरन्तर अनुपस्थित रहा हो, और उस काल के भीतर ऐसे व्यक्ति ने यह नहीं सुना हो कि वह जीवित है, परन्तु यह तब जब कि ऐसा पश्चातवर्ती विवाह करने वाला व्यक्ति उस विवाह के होने से पूर्व उस व्यक्ति को, जिस के साथ ऐसा विवाह होता है तथ्यों की वास्तविक स्थिति की जानकारी, जहाँ तक कि उन का ज्ञान उस को हो, दे दे।

इसी तरह जारकर्म (Adultery) को धारा 497 के द्वारा अपराध घोषित किया गया है जो इस तरह है….

497. जारकर्म – जो कोई ऐसे व्यक्ति के साथ, जो कि किसी अन्य पुरुष की पत्नी है, और जिस का किसी अन्य पुरुष की पत्नी होना वह जानता है,  या विश्वास करने का कारण रखता है, उस पुरुष की सम्मति या मौनानुकूलता के बिना ऐसा मैथुन करेगा जो बलात्संग के अपराध की कोटि में नहीं आता, वह जारकर्म के अपराध का दोषी होगा, और दोनों में से किसी भांति के कारावास से दंडनीय, जिस की अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा। ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दण्डनीय नहीं होगी।

धारा 494 के अंतर्गत द्वि-विवाह के अपराध के कारण कोई भी विवाहित स्त्री या पुरुष ऐसा विवाह नहीं कर सकता, जो किसी विवाह विधि के अंतर्गत शून्य हो। यह धारा जहाँ  सभी व्यक्तिगत कानूनों (Personal Laws) के अंतर्गत दूसरा विवाह अनुमत होने पर उसे छूट देती है। वहीं इस बात की छूट भी देती है कि कोई भी विवाहित स्त्री किसी दूसरे पुरुष के साथ और विवाहित पुरुष किसी दूसरी स्त्री के साथ बिना विवाह किये सहावासी रिश्ता बनाता है तो वह इस धारा के अंतर्गत दंडनीय नहीं होगा।

धारा 497 में जारकर्म को परिभाषित करते हुए उसे दंडनीय अपराध बनाया गया है। जो केवल पुरुषों के लिए दंड का विधान करती है। कोई भी पुरुष जो किसी विवाहित स्त्री के साथ जिस के बारे में वह जानता है या विश्वास रखता है उस पुरुष की सहमति या मौनानुकूलता के बिना ऐसा मैथुन करता है जिसे बलात्संग नहीं कहा जा सकता तो वह जारकर्म का दोषी होगा। यहाँ अन्य पुरुष को किसी भी पति की मौनानुकूलता या सहमति से स्त्री के साथ ऐसे मैथुन को जो बलात्संग नहीं है अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। स्पष्टतः यहाँ स्त्री को पुरुष की संपत्ति माना गया है।

जिस समाज में आर्थिक और सामाजिक दबाव बहुत अर्थ रखते हों, जहाँ बलात्संग के अपराध में लोग स्त्री की सहमति साबित कर छूट जाते हों वहाँ स्त्री की सहमति दर्जा क्या हो सकता है? इस का आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।

इन दो धाराओं के अतिरिक्त धारा 493 में विधिपूर्ण विवाह का धोका देकर स्त्री के साथ सहवास करने,  धारा 495 में विवाहित होना छुपा कर विवाह कर लेने, धारा 496 में विधिपूर्वक विवाह होने का धोका देकर अविधि विवाह करने तथा 498 में विवाहिता स्त्री को अपराधिक आशय से किसी अन्य व्यक्ति के साथ अयुक्त (illicit) संभोग करने के लिए फुसला कर ले जाने और निरुद्ध रखने को अपराध बनाया गया है। इस के अतिरिक्त कोई भी अपराध भारतीय दंड विधान में वर्णित नहीं है।

इस प्रकार हम देखते हैं अविवाहित, विधवा और तलाकशुदा स्त्रियों के साथ सहावासी रिश्ते बनाने की पूरी छूट दंड कानून ने पहले से ही दे रखी है। जितने भी प्रतिबंध हैं वे सभी कानूनी रूप से विवाहित महिलाओं के संबंध मे ही हैं। (जारी)

( अगले आलेख में हम सामाजिक प्रथाओं की बात करेंगे)

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