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धारा-9 हिन्दू विवाह अधिनियम के प्रकरण में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी को पक्षकार नहीं बनाया जा सकता

 महेश कुमार वर्मा ने पूछा है –
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 9 क्या है? मूल धारा हिन्दी अनुवाद सहित बताने का अनुग्रह करें। इस की परिसीमाएँ क्या हैं? क्या इस तरह के मुकदमे में एक से अधिक प्रतिपक्षी हो सकते हैं? क्या आवेदक की पत्नी के पिता उसे आवेदक के पास नहीं जाने दे रहे हैं और उसे अपनी संरक्षा में रखे हुए हैं। जिस से आवेदक और उस की पत्नी के मध्य संपर्क नहीं हो पा रहा है। क्या ऐसी स्थिति में पत्नी के पिता को भी धारा-9 के अंतर्गत पक्षकार बनाया  जा सकता है?

 उत्तर –

महेश जी,

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-9 मूल अंग्रेजी में निम्न प्रकार है –

9. Restitution of conjugal rights.
When either the husband or the wife has, without reasonable excuse, withdrawn from the society of the other, the aggrieved party may apply, by petition to the district court, for restitution of conjugal rights and the court, on being satisfied of the truth of the statements made in such petition and that there is no legal ground why the application should not be granted, may decree restitution of conjugal rights accordingly.
Explanation.- Where a question arises whether there has been reasonable excuse for withdrawal from the society, the burden of proving reasonable excuse shall be on the person who has withdrawn from the society.

र यह रहा उस का हिन्दी अनुवाद

9. दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना.

जब या तो पति या पत्नी में से कोई भी बिना किसी युक्तियुक्त कारण के दूसरे के साथ रहने से अपने आप को अलग कर लेता है, तब पीड़ित पक्षकार जिला न्यायालय (जहाँ परिवार न्यायालय स्थापित हैं वहाँ परिवार न्यायालय) को आवेदन प्रस्तुत कर दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए प्रार्थना कर सकता है और न्यायालय उस आवेदन में अंकित कथनों की सत्यता से संतुष्ट होने पर और आवेदन को अस्वीकार करने का कोई विधिक आधार न होने पर, तदनुसार दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना की डिक्री (जयपत्र) पारित कर सकता है। 

स्पष्टीकरण – 

जहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो कि क्या विपक्षी पक्षकार के पास अपने जीवनसाथी के साथ रहना त्याग देने के लिए युक्तियुक्त कारण था, तब ऐसे युक्तियुक्त कारण को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जिस ने  अपने जीवनसाथी के साथ रहना त्याग दिया है।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-9 मूल व उस का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। इस के पढ़ने से यह स्पष्ट है कि इस धारा के अंतर्गत आवेदन में पति-पत्नी ही पक्षकार हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं। क्यों कि दाम्पत्य अधिकारों के त्याग का मामला केवल और केवल पति व पत्नी के मध्य का है। इस में किसी अन्य व्यक्ति का कोई हस्तक्षेप नहीं है। इस मामले में एक से अधिक पक्षकार नहीं हो सकते हैं।
दि पत्नी का पिता, या अन्य कोई सम्बन्धी, या कोई अन्य व्यक्ति किसी की पत्नी को रोक कर रखता है और उसे अपने पति के पास नहीं जाने देता है तो यह मामला वैवाहिक विवाद न हो कर किसी वयस्क व्यक्ति को उस की इच्छा के विरुद्ध रोक कर रखने का अपराधिक मामला है जो कि सदोष परिरोध की श्रेणी में आता है और जो धारा 342 दंड प्रक्रिया संहित के अंतर्गत एक वर्ष तक की अवधि या जुर्माने या दोनों से दं
डनीय अपराध है। यही परिरोध तीन या अधिक दिनों का होने पर धारा 343 के अंतर्गत दो वर्ष तक के कारावास या या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय अपराध है। यही परिरोध दस या अधिक दिनों का होने पर धारा 344 के अंतर्गत तीन वर्ष तक के कारावास या या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय अपराध है। यही परिरोध उच्च न्यायालय से रिट जारी हो जाने पर जारी रहने पर धारा 345 के अंतर्गत उपर्युक्त धाराओं में वर्णित कारावास के अतिरिक्त दो वर्ष तक के कारावास या या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय अपराध है। 
प यदि समझते हैं कि किसी पिता ने या किसी अन्य व्यक्ति ने किसी की पत्नी को उस की इच्छा के विरुद्ध रोक रखा है और पति से मिलने नहीं देता है तो पति को चाहिए कि वह उच्च न्यायालय में अपनी पत्नी को छोड़े जाने के लिए रिट याचिका दाखिल करे और रिट जारी करवाए। इस पर भी पत्नी परिरोध रहने पर सम्बन्धित पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा कर पत्नी के पिता को दंडित कराने के लिए कार्यवाही आरंभ कराए। पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर कार्यवाही आरंभ न किए जाने पर। मजिस्ट्रेट के न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत करे। लेकिन इस मामले में पति को पहले यह साबित करना होगा कि जिस स्त्री का परिरोध किया जा रहा है उस के साथ उस का विवाह संपन्न हुआ है और वह उस की विधिपूर्वक पत्नी है। 

स के अतिरिक्त दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 97 में यह उपबंधित किया गया है कि किसी जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण है कि कोई व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों में परिरुद्ध है जिन में वह परिरोध अपराध की श्रेणी में आता है तो वह तलाशी वारण्ट जारी कर सकता है और वह व्यक्ति जिस को ले कर ऐसा वारण्ट निर्दिष्ट किया जाता है, ऐसे परिरुद्ध व्यक्ति के लिए तलाशी ले सकता है और ऐसी तलाशी तदनुसार ही ली जाएगी और यदि वह व्यक्ति मिल जाए तो उसे तुरन्त मजिस्ट्रेट के समक्ष ले जाया जाएगा, जो ऐसा आदेश करेगा जैसा उस मामले की परिस्थितियों में उचित प्रतीत हो। इस मामले में यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि परिरुद्ध स्त्री शिकायत प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति की पत्नी है। यहाँ केवल मजिस्ट्रेट को इतना संतुष्ट करना पर्याप्त है कि किसी व्यक्ति को ऐसी परिस्थितियों में परिरुद्ध किया हुआ है जिन में वह परिरोध अपराध की श्रेणी में आता है।


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