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न्याय है क्या?

न्याय की गतिपिछले माह इंडिया गेट, विजयचौक पर जो जनप्रदर्शन हुए उन की मुख्य मांग हमें न्याय चाहिए (We Want Justice) थी।  इन प्रदर्शनों के पीछे चलती हुई बस में हुए सामुहिक बलात्कार की घटना थी। जिस के कारण उस का यह संकुचित अर्थ लगाया गया कि यह केवल उस घटना के अपराधियों को दंडित करने मात्र के लिए है।  लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही था? मेरे विचार से ऐसा नहीं था। यह तो सही है कि लोगों को उस नृशंस घटना उद्वेलित किया था। लेकिन कभी भी बम का धमाका या आग का एक भभका किसी पतीली में भरे पानी में उबाल नहीं लाता। बहुत देर से गर्म होते पानी को यदि को आग का भभका मिले तो वह उबल सकता है। यही यहाँ हुआ था। भारतीय जीवन के किसी पक्ष को देख लें। सभी स्थानों पर अन्याय दीख पड़ता है। खाने का भोजन मिलावटी मिलता है, बीमार होने पर दवा पर भरोसा नहीं कर सकते कि वह सही है या नकली। राज्य का कर्तव्य है कि अपराध कम से कम हों। पर शायद यह सोच लिया गया है कि अपराध तो होते ही रहेंगे। जब अपराध होगा तो अन्वेषण कर के अभियुक्तों के विरुद्ध न्यायालय में आरोप पत्र प्रस्तुत कर दिया जाएगा। इस के बाद सारे कर्तव्य अदालतों के हैं।

संसद और विधान सभाएँ हर साल सैंकड़ों नए कानून बनाती है। सांसद और विधायक स्वयं को कानून निर्माता समझते भी हैं। लेकिन जब किसी सांसद या विधायक से बात की जाती है तो उस का कहना यही है कि उन का काम कानून बनाना है। उसे लागू तो प्रशासन ही कराएगा। अब प्रशासन कैसे चले इस की जिम्मेदारी लगता है किसी की नहीं है। वही अपनी मर्जी से चले तो चले। क्या सांसदों  और विधायकों का कर्तव्य यह नहीं होना चाहिए कि जिस कानून को वे संसद में बैठ कर बनाते हैं उसे प्रभावी बनाने की जिम्मेदारी भी उन की है?

मारी न्यायपालिका तीन हिस्सों में विभाजित है। अधीनस्थ न्यायालय, उन से ऊपर उच्च न्यायालय और सब से ऊपर सर्वोच्च न्यायालय। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के लिए धन जुटाने की जिम्मेदारी जहाँ केन्द्र सरकार की है वहीं अधीनस्थ न्यायालयों के लिए धन जुटाना राज्यों का काम है। हमारे सभी न्यायालयों में मुकदमों के अंबार लगे हैं। लेकिन अधीनस्थ न्यायालयों में तो हालत बहुत बुरी है। एक जज के पास अधिक से अधिक पाँच सौ मुकदमे लंबित होने चाहिए लेकिन अधीनस्थ न्यायालयों में आम तौर पर एक जज के पास 2000 से ले कर 5000 और अनेक अदालतों में इस से भी अधिक मुकदमे लंबित हैं। जिन अदालतों पर उन की क्षमता से दस गुना और अधिक काम लाद दिया गया है वे न्याय करेंगी या घास काटेंगी। अधिक मुकदमों का अर्थ यह भी है कि मुकदमों में लंबी लंबी पेशियाँ हों। अनेक मुकदमे तो ऐसे हैं जिन में साल में दो पेशियाँ भी बमुश्किल होती हैं। राज्य सरकारों की स्थिति तो यह है कि उन की सोच ही नहीं हैं कि न्याय के लिए धन प्रदान करना उन की जिम्मेदारी है।

दालतों की यह कमी देश व्यापी है। जब न्याय के लिए आवाज उठती है तो कहा जाता है इस मामले में फास्ट ट्रेक कोर्ट होनी चाहिए। फास्ट ट्रेक कोर्ट की मांग और सरकारों द्वारा उस की स्वीकार्यता इस बात की द्योतक है कि वे जनता को न्याय के लिए पर्याप्त अदालतें स्थापित करने में अक्षम रही हैं। यदि न्याय ही करना है तो बाकी सब बातें बाद में पहले पर्याप्त संख्या में अदालतों की स्थापना जरूरी है। कल के जनसत्ता के इस संपादकीय में जो आँकड़े दिए गए है उन के हिसाब से हमारे यहाँ अदालतों और जनसंख्या का अनुपात अमरीका के मुकाबले 10 प्रतिशत है। इस के बाद न्यायपालिका में घर की हुई सैंकड़ों अन्य बीमारियाँ हैं। उन से छन कर कितना न्याय देश की जनता को मिलता है उस का अनुमान लगाया जा सकता है।  हम कह सकते हैं कि देश में न्याय नहीं है या नगण्य है। व्यवहार में यह दिखता भी है कि न्याय केवल इस देश के 5-10 प्रतिशत संपन्न लोगों के लिए सीमित है।

देश में आवश्यकता के अनुसार अदालतों की स्थापना देश की प्राथमिक आवश्यकता है। यदि सरकारें अपने इस कर्तव्य की तरफ से विमुख रहती हैं तो निकट भविष्य में दिल्ली के आंदोलन जैसे और उस से भी विशाल आंदोलन-प्रदर्शन देश भर में देखने को मिलेंगे।

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