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पत्नी के किए झूठे मुकदमे से परेशान पुरुष की आह! और उस से एक छोटी सी बात

 रविन्दर काम्बोज ने यह पत्र तीसरा खंबा को भेजा है –
भारतीय संविधान में महिलाओं को जो अधिकार दिए गए हैं,  मुझ जैसे पता नहीं कितने बेगुनाह उसका शिकार हो रहे हैं।  मुझपर मेरे ससुराल वालो ने झूठा दहेज का केस थोपा है, मेरे पास अपनी बेगुनाही के सबूत भी मौजूद हैं, परन्तु फिर भी मुझे इन्साफ नहीं मिल रहा है।  करीब 2 साल पहले मेरी शादी हुई थी, शादी के कुछ दिन बाद ही मेरी पत्नी की तबियत ख़राब हो गई, उसे हॉस्पिटल में भरती करवाया तो डाक्टर  ने उसकी जाँच  की तो पता चला की वो एक ला इलाज़ हृदय रोग से ग्रस्त है।  डॉक्टर ने बोला की ये लड़की शादी के काबिल नहीं थी, और लड़की के पिताजी को भी डॉक्टर ने फटकार लगाई कि जब तुम्हें पता था कि ये लड़की शादी के काबिल नहीं है तो तुमने जान बूझकर क्यूं इस लड़के की जिंदगी खराब की।  डॉक्टर ने हमें सलाह दी कि अपने ससुराल वालों पर 420 का मुकदमा कर दो और लड़की को तलाक दे दो।  परन्तु हमने इंसानियत के नाते ऐसा करना ठीक नहीं समझा और उसे अपने पास ही रखा।  उसका इलाज़ करवाते रहे जिस में हमारा बहुत धन व्यय हुआ।
कुछ दिनों बाद लड़की अपने घर चली गई।  मैं उसके घर वालों को भी उसके इलाज़ का खर्चा देता रहा। लेकिन फिर उनका लालच बढ़ गया और वो मुझ से बहुत अधिक धन की मांग करने लगे जो मेरी पहुँच से दूर था। मैंने उन्हें पैसे देने से इनकार कर दिया तो मुझे धमकियाँ देने लगे कि 7 लाख रूपए दे दो नहीं तो हम तुम पर झूठा दहेज का केस कर  तुमको सारी उम्र जेल में कैद करवा देंगे। मैं उतनी राशि देने में असमर्थ था।  इस बारे में मैंने अपने जिले के स.प. को शिकायत भी की, लेकिन पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की। पत्नी ने हम पर  दहेज का झूठा केस कर दिया, जिस वजह से मुझे 3 दिन हवालात में भी रहना पड़ा। मैंने अपनी बेगुनाही के सबूत भी पुलिस को दिखाए, लेकिन मेरी एक नहीं सुनी गई। मैं  हर रोज कोर्ट कचहरियों के चक्कर काट काट कर बहुत परेशांन हो चुका हूँ। बहुत पैसा भी बर्बाद हो गया है, तक़रीबन  40,000  रूपए से भी ज्यादा लग चुके हैं। लेकिन कोर्ट से फिर भी इन्साफ नहीं मिल रहा है जिस वजह से मेरे ससुराल वालों के होसले और बुलंद हो गए हैं। उन्होंने पैसों के बल पर पुलिस और कानून दोनों को अपनी तरफ कर लिया है, बिलकुल ऐसा ही वो पहले भी एक बार कर चुके हैं अपने एक  दामाद के साथ जब वह  दिल्ली में रहता था तो उनसे भी इन्होने 10,00,000 रूपए वसूले थे।  इस वजह से हमारे साथ भी वो ऐसा ही कर रहे हैं.  मेरे पास अपनी बेगुनाही के सारे पुख्ता सबूत मौजूद हैं।
ज कल इस दहेज वाले कानून का दुरूपयोग करके लोग पता नहीं कितने बेगुनाहों से लाखों कमा रहे हैं, लड़कियां ससुराल वालों को ब्लैकमेल करती  हैं।  इस वजह से मजबूर पतियों को उनकी इस जिद्द के आगे अपने माँ-बाप तक को छोडना पड़ता है।.  मेरा कसूर सिर्फ इतना है कि मैंने  उसी वक़्त डॉक्टर की बात मान कर उसे तलाक देने के बजाए उस से हमदर्दी दिखाई.। एक तरफ तो भारत का कानून स्त्रियों से हमदर्दी करने की सलाह देता है और दूसरी तरफ मुझे सिर्फ उसी हमदर्दी की सजा मिल रही है।  मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि मेरे साथ जो हुआ सो हुआ, लेकिन  किसी और के साथ ऐसा न हो। यदि इस कानून का इसी  तरह गलत इस्तेमाल होता रहा तो, विवाहित जीवन  नरक बन जाएगा और लोगो के मन से इंसानियत बिलकुल खतम हो जाएगी और लोग स्त्रियों का भला करने से भी कतराने लगेंगे। इसी बारे में मैंने ऐसा ही एक पत्र महामहिम राष्ट्रपति जी को भी ई-मेल किया था जिसका पंजीकरण नम्बर : PRSEC/E/2011/09707 मिला था। लेकिन राष्ट्रपति जी से भी मुझे निराशा भी हाथ लगी।
 उत्तर –
रविन्दर जी,
 प के साथ जो कुछ भी हुआ है, उस के लिए मुझे आप के साथ हमदर्दी है। आप की इस दुर्दशा में समाज की और आप की भी बहुत भूमिका रही है। सब से पहला दोष तो हमारे समाज का यह है कि हम लड़कियों और स्त्रियों को पुरुषों के समान इंसान नहीं समझते। यदि वह लड़की पहले से या जन्म से ही बीमार थी तब उस की चिकित्सा उस के पिता को करानी चाहिए थी, उन्हों ने उस की चिकित्सा ठीक से नहीं कराई और उसे विवाह कर के अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए। आप के साथ विवाह हुआ कैसे भी हो वह आप की पत्नी हो गई। लेकिन आप ने उसे बराबरी का दर्जा तो दूर उसे पत्नी का दर्जा भी नहीं दिया। इस पत्र में भी आप उसे लड़की ही कह रहे हैं, पत्नी नहीं, जब कि वह आज भी आप की पत्नी है। उस के साथ उस के माँ-बाप ने उचित व्यवहार नहीं किया। आप ने उस से हमदर्दी दिखाई लेकिन समान दर्जा फिर भी उसे नहीं दिया।  खैर! इस में आप का अकेले का क्या कसूर? उस के माता-पिता ही उस के सगे न हुए। कुल मिला कर हमारे समाज का ढांचा ऐसा है कि एक स्त्री के प्रति वह न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करता। संविधान उस के साथ समानता का व्यवहार करने की कहता है और उसे समानता का दर्जा देता है, लेकिन हम संविधान को कहाँ मानते हैं?
हिलाओं के प्रति अत्याचारों को रोकने के लिए संसद ने कानून बनाए। लेकिन उन कानूनों का पालन कितना किया जाता है? सब जानते हैं। दंप्रसं की धारा 498 ए में कोई कमी नहीं है। जैसे ही कोई मामला पुलिस के पास पहुँचता है, पुलिस की बाध्यता है कि वह मुकदमा दर्ज करे और उस में अन्वेषण करे। हमारा सामाजिक ढाँचा ऐसा है कि शायद ही कोई स्त्री ऐसी मिले जिस के साथ उस के ससुराल में क्रूरतापूर्ण व्यवहार न किया गया हो। लगभग हर मामले में क्रूरता के सबूत मिलते हैं और पुलिस द्वारा मुकदमा तैयार करना जरूरी हो जाता है। फँस जाने पर पति और ससुराल वाले पुलिस से साँठगाँठ करते हैं। लेकिन पुलिस की मजबूरी है कि वह क्रूरता के सबूत मिलने के बाद पति को बरी नहीं कर सकती। वह ससुराल वालों को किसी तरह ले दे कर मामले से निकाल देती है, लेकिन रिश्वत ले कर भी पति को गिरफ्तार करती है और अदालत में मुकदमा पेश करती है। पति की वहाँ दो तीन दिन में नहीं तो एक-दो माह में जमानत हो जाती है।  आप खुशकिस्मत हैं कि आप तीन दिनों में हिरासत से मुक्त हो गए। अब आप को बस इतनी तकलीफ है कि आप को बरसों पेशियाँ करनी पड़ेंगी। या फिर पत्नी को हर माह खर्चा देना पड़ेगा। मुकदमा ठीक से लड़ा गया तो आप को सजा नहीं होगी। पुलिस को मुकदमा साबित करने में कोई रुचि नहीं और आप के ससुराल वाले उसे साबित कर नहीं सकते।
प अपने आप को पूरी तरह बेदाग नहीं कह सकते। यदि होते तो चालीस हजार रुपया किस में खर्च कर दिया। यदि पुलिस को पैसा नहीं दिया हो तो आप की जमानत अधिक से अधिक पाँच-दस हजार में हो गई होती और मुकदमा भी उस में लड़ लिया होता। आप ने स्वयं भ्रष्टाचार का सहारा लिया है। यदि आप पूरी तरह सच्चे थे तो व्यवस्था से भिड़ कर लड़ सकते थे। खैर! इस में भी आप ने वही किया जो सब करते रहे हैं। आप तो समाज की धारा में बह रहे हैं। बह रहे हैं तो आप को समाज द्वारा किए जा रहे अपराधों की सजा भी भुगतनी पड़ेगी। जो आप भुगत ही रहे हैं।
प ने कहा कि लड़कियाँ पतियों को ब्लेक मेल करती हैं। आप ने बिलकुल गलत कहा। ब्लेक मेल पुरुष ही करते हैं वे लड़कियों के पिता, चाचा और मामा वगैरा होते हैं। लड़कियाँ तो ब्लेकमेल में इस्तेमाल की जाती हैं। आप ने बिलकुल सही कहा कि कानून का गलत इस्तेमाल होता रहा तो वैवाहिक जीवन नष्ट हो जाएगा। आप चाहते हैं कि और लोगों का जीवन बरबाद न हो। तो इस दिशा में आप को काम करने से कौन रोक रहा है? आप ये करना चाहते हैं तो समाज में बदलाव लाने के लिए काम करें। ऐसी फिजाँ बनाने के लिए काम करें जिस में लड़कियों और औरतों को इंसान समझा जाए, उन्हें किताबी नहीं वास्तविक रूप से समान अधिकार हों। विवाह अंधों की तरह न किए जाएँ। लड़के-लड़की एक दूसरे को समझें और अपने माता-पिता की इच्छा से नहीं, अपनी इच्छा से विवाह करने लगें। माता-पिता मार्गदर्शक हों, लेकिन युवक-युवतियाँ अपने जीवन का मार्ग स्वयं तय करें। लड़कियाँ अपने पैरों पर खड़ी हों। (ऐसा हुआ तो वे पति से भरण-पोषण खर्चा नहीं मांग सकेंगी, जरूरत पड़ने पर उन से ही मांगा जा सकेगा)
हाँ तक कानून बदलने का प्रश्न है तो उसे बदलने के लिए तो सरकार ने कमर कस ली है। जल्दी ही उस के परिणाम देखने को मिलेंगे। हो सकता है 498 ए का अपराध संज्ञेय न रह जाए, हो सकता है वह जमानतीय रह जाए। ऐसा हुआ तो उस कानून का पूरा दम ही निकल जाएगा। फिर जम कर लोग पत्नियों बहुओं के साथ क्रूरता करते रह सकते हैं। अधिक से अधिक उन्हें मुकदमे का ही तो सामना करना पड़ेगा। वे आसानी से कर लेंगे। बस पुलिस के तंग करने की थोड़ी समस्या होगी और थोड़ी सी समस्या बरसों मुकदमा चलने की रहेगी। तो अदालतों की संख्या बढ़ाने के लिए लड़ा जा सकता है जिस से मुकदमों का निर्णय एक-दो वर्ष में होने लगे। इन सब कामों के लिए संगठन खड़ा करना होगा। तो आप अपने आसपास देखिए, कोशिश कीजिए, अपने जैसे कुछ नौजवानों को साथ लाइए और समाज में काम आरंभ कीजिए। हो सकता है आप की पहल पर ही कुछ बर्फ पिघले।
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