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प्रेसीडेंसी नगरों में उच्च न्यायालयों की स्थापना : भारत में विधि का इतिहास-78

कलकत्ता उच्च न्यायालय
भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम-1861 (Indian High Courts Act-1861) से स्वतः ही किसी उच्च न्यायालय की स्थापना भारत में नहीं हुई। इस के लिए ब्रिटेन की महारानी ने दिनांक 14 मई 1862 को कलकत्ता के लिए आदेश जारी किया लेटर्स पेटेंट 1 जुलाई 1862 को जारी हुआ और अगले दिन 2 जुलाई 1862 से कलकत्ता में उच्च न्यायालय ने काम करना आरंभ कर दिया। यह भारत के न्यायिक इतिहास के लिए मील का पत्थर था। इस दिन से भारतीय न्यायिक व्यवस्था ने एक नए युग में कदम रखा था। जिस के कारण समूचे भारत में एक जैसी न्याय व्यवस्था की नींव पड़ गई थी।  को इसी तरह बम्बई और मद्रास के लिए 26 जून 1862 को लेटर्स पेटेंट जारी किया गया। जिस के अनुसार 14 अगस्त 1862 को मुम्बई में और 16 अगस्त 1862 को मद्रास में उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई। बाद में उक्त लेटर्स पेटेंट दोष युक्त पाया गया और उसे निरसित कर 1865 में न्या लेटर्स पेटेंट जारी किया गया। तीनों उच्च न्यायालयों के लिए जारी किए गए लेटर्स पेटेंट समान थे। जिस के कारण तीनों उच्च न्यायालयों को समान अधिकारिता अपने अपने क्षेत्रों में प्राप्त हो गई थी। 28 दिसंबर 1965 को जारी किए गए लेटर्स पेटेंट के द्वारा उच्च न्यायालयों की अधिकारिता सुनिश्चित की गई थी। जो इस प्रकार थी।
सिविल अधिकारिता-
 1- साधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता- उच्च न्यायालयों की आरंभिक अधिकारिता में प्रेसीडेंसी नगरों की विनिर्दिष्ट सीमा में अथवा भारत के विधान मंडल की विधि द्वारा निर्धारित सीमा के अंतर्गत होने वाले भूमि और स्थाई संपत्ति संबंधि समस्त मामले समाविष्ट किए गए थे। उच्च न्यायालय इन का विचारण और निपटारा कर सकता था। लेकिन ऋण, क्षतियों और संपत्ति के 100 रुपए से कम मूल्य के मामलों को उच्च न्यायालय की अधिकारिता के बाहर रखा गया था। जो मामले उस समय तक कलकत्ता उच्च न्यायालय में दायर किए जा सकते थे उन के लिए आवश्यक था कि कलकत्ता प्रेसीडेंसी की सीमा में उन के लिए वाद हेतुक  उत्पन्न हुआ हो या संपत्ति उस सीमा में स्थित हो या प्रतिवादी उस सीमा में निवास, व्यापार या लाभार्जन से कोई कार्य करता हो। उच्च न्यायालय को प्रेसीडेंसी नगर की सीमा के बाहर के प्रारंभिक मामलों की सुनवाई और निपटारे का अधिकार नहीं दिया गया था।
2- असाधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता- इस अधिकारिता के अधीन उच्चन्यायालय  अपने अधीनस्थ किसी भी न्यायालय में लंबित किसी भी मामले को अपने समक्ष प्रस्तुत करने का लिखित आदेश जारी कर सकता था यदि मामले के पक्षकारों ने इस के लिए सहमति प्रकट की हो या न्याय के निर्वहन के लिए ऐसा किया जाना आवश्यक हो गया हो। उच्च न्यायालय ऐसे मामलों की सुनवाई कर निर्णीत कर सकता था। 
3- समान वाद हेतुक वाले मामलों में एक साथ सुनवाई करने की शक्ति- उच्च न्यायालय को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि एक से अधिक मामलों में समान वाद हेतुक होने पर उन मामलों को एक साथ ग्राह्य किया जा सकता था। ऐसे मामलों में उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा व्यवहृत विधि का ही प्रयोग कर सकता था। 
4- सिविल अपीलीय अधिकारिता- उच्च न्यायालयों को सदर दीवानी अदालतों की सिविल अपीलीय अधिकारिता अंतरित की गई थी। वह समस्त ऐसे मामलों में निर्णयों की अपीलें सुन सकता था जिसे उसे विधि अथवा विनियमो

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