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वकील की फीस और मुकदमों का खर्च

कील की फीस और मुकदमों का खर्च इतना बढ़ गया है कि बहुत से लोग अब अदालत का रुख करने से बचने लगे हैं। लोगों ने सोचा था कि चैंक बाउंस पर फौजदारी मुकदमा करने का कानून आ जाने से अब रुपया वसूल करना आसान हो जाएगा। लेकिन कोई भी वकील इस तरह के मुकदमों को बिना पाँच हजार रुपया फीस लिए बिना करना नहीं चाहता। मुवक्किल वकील को दस प्रतिशत से अधिक फीस देना नहीं चाहता। नतीजा ये हुआ कि कोई वकील पचास हजार रुपए से कम का चैक बाउंस का मुकदमा नहीं करना चाहता। इस का एक नतीजा और यह भी हो रहा है कि जरूरत पड़ने पर किसी को कोई छोटी धनराशि उधार देना नहीं चाहता। खैर, चैक बाउंस के मुकदमे में तो जीतने पर चैक की दुगनी राशि के बराबर तक की वसूली होने की संभावना रहती है जिस से मूल रकम के साथ साथ मुकदमा खर्चा और वकील को दी जाने वाली फीस और रकम का ब्याज पट जाने की गुंजाइश रहती है। लेकिन दीवानी मुकदमों में तो एक सच्चे पक्षकार को मुकदमा जीतने के बाद मुकदमे का खर्चा तक मिलने की गुंजाइश नजर नहीं आती। मसलन मकान मालिक यदि बकाया किराए के साथ मकान खाली कराने का मुकदमा करे और मुकदमा डिक्री हो जाए और मकान खाली हो जाए तो उसे बकाया किराए और खर्चा मुकदमा वसूल करने का इरादा त्याग देना पड़ता है। पिछले दिनों ऐेसे ही एक मामले में मुकदमा अंतिम स्तर पर पंहुँचने के साथ ही किराएदार ने चुपचाप मकान खाली कर दिया। अदालत में उस के वकील ने कहा कि उस के मुवक्किल ने मकान खाली कर दिया है इस लिए मुकदमा खारिज कर दिया जाए। जब कि मकान मालिक कह रहा है कि उस का आठ बरस का बिजली पानी का पैसा बाकी है जो लाख रुपए से अधिक है और किराएदार ने उसे फिजूल ही आठ बरस परेशान किया है। उसे बिजली पानी का पैसा ब्याज सहित मिलना चाहिए और खर्चा मुकदमा भी मिलना चाहिए। इधर निचली दीवानी अदालतों में खर्चा मुकदमा दिलाने के मामले में यह रवैया आम देखने को मिल रहा है कि वे निर्णय में कहती हैं कि दोनों पक्ष खर्चा मुकदमा अपना अपना भुगतेंगे।

भी कभी ऐसा भी होता है कि खर्चा मुकदमा ही इतना होता है कि साधारण पक्षकार की आँखें उसे सुन कर ही चौड़ा जाएँ।  संजीव कुमार जैन बनाम रघुवीर शरण चेरिटेबल ट्रस्ट एवं अन्य के ऐसे  ही मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय को पिछले वर्ष सुनवाई करनी पड़ी। इस मामले में संजीव कुमार रघुवीर शरण चेरिटेबल ट्रस्ट की कनॉट प्लेस स्थित इमारत के प्रथम तल पर तथा मध्य तल की दो इकाइयों में किराएदार था। 1986 में उस ने ट्रस्ट की अनुमति से मध्य तल से प्रथम तल तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों का निर्माण किया। बाद में ट्रस्ट ने मध्य तल को खाली कराने का मुकदमा किया और उस का खाली कब्जा संजीव कुमार जैन से प्राप्त कर लिया। लेकिन उस ने दावा किया कि मध्य तल से प्रथम तल तक उस के द्वारा बनाई गई सीढ़ियों पर हो कर उसे अपने प्रथम तल पर स्थित इकाई में जाने का अधिकार है। संजीव ने  उसे इन सीढ़ियों के प्रयोग से ट्रस्ट द्वारा न रोके जाने के लिए स्थाई व्यादेश  प्राप्त करने के लिए दीवानी वाद प्रस्तुत किया। उसे अंतरिम सुरक्षा मिली लेकिन फिर न्यायालय ने इस आदेश को निरस्त कर दिया। संजीव ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दाखिल की जो छह साल तक चलती रही। अंतिम बहस के दौरान खंड पीठ ने सुझाव दिया कि सारा मामला व्यावसायिक है इस कारण से सफलता प्राप्त करने वाले पक्षकार को  असफल पक्षकार के द्वारा मुकदमे का ख्रर्चा देना चाहिए। इस पर दोनों पक्षों ने सहमति जताई। न्यायालय ने निर्णय को सुरक्षित रखते हुए दोनों पक्षकारों से केवल अपील के खर्च का विवरण प्रस्तुत करने को कहा। संजीव ने अपना मेमों प्रस्तुत किया जिस में उस ने बताया कि उस का वकीलों की फीस अदा करने पर रुपए 25,50,000/- खर्च हुआ है। ट्रस्ट ने अपने वकील की फीस रुपए 45,28,000/- बताई। न्यायालय ने संजीव की अपील को खारिज करते हुए आदेश दिया कि वह छह माह में ट्रस्ट को रुपए  45,28,000/- अदा करे। संजीव ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष गुणावगुण पर और मुकदमा खर्च के भुगतान पर अपील प्रस्तुत कर चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को केवल मुकदमा खर्च के मामले में अनुमति प्रदान की।

 सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को गंभीरता से लिया। उस ने दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 35, 35-क, 35-ख तथा आदेश 20-क का उल्लेख किया और सर्वोच्च न्यायालय के  सलेम एडवोकेटस् बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ के मामले में दिए गए पूर्व निर्णय का उल्लेख किया कि न्यायालय अक्सर मामलों में विजयी पक्ष को मुकदमा खर्च न दिला कर सभी पक्षकारों को अपना अपना खर्च भुगतने का आदेश देती है जो गलत है इस तरह निराधार मामले न्यायालय के सामने लाने वाले लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। न्यायालय यदि खर्च दिलाती भी हैं तो वे वास्तविक न हो कर नाममात्र के होते हैं जिस से न तो किसी पक्षकार को राहत मिलती है और न असफल पक्षकार पर दबाव आता है।  इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि मुकदमा खर्च वास्तविक होना चाहिए और उसे दिलाएजाने का उचित कारण होना चाहिए। वह जीतने वाले पक्षकार की मर्जी पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। वकीलों को सामान्य रूप से दी जाने वाली फीस खर्च के रूप में दिलाई जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने  विधि आयोग, संसद और उच्च न्यायालयों को खर्चा मुकदमा दिलाए जाने के लिए उचित उपबंध बनाए जाने का सुझाव दिया। इस मामले में उच्च न्यायालय के प्रावधानों के अनुसार दिलाया जाने वाला मुकदमा खर्च तथा 3000/- रुपए दंडात्मक खर्च दिलाए जाने का और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष की गई अपील में कोई खर्च नहीं दिलाए जाने का आदेश दिया।

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