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व्यक्ति शब्द में महिला कब सम्मिलित हुई – महिला सशक्तिकरण

गतांक से आगे …

संविधान, कानूनी प्राविधान और अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज

हमारे संविधान का अनुच्छेद १५(१), लिंग के आधार पर भेदभाव करना प्रतिबन्धित करता है पर अनुच्छेद १५(२) महिलाओं और बच्चों के लिये अलग नियम बनाने की अनुमति देता है। यही कारण है कि महिलाओं और बच्चों को हमेशा वरीयता दी जा सकती है।

उन्मुक्त जी का यह लेख महिलाओं की अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई के बारे में है। इसमें महिला अधिकार और सशक्तिकरण की चर्चा है। प्रस्तुत है इस की दूसरी कड़ी …

संविधान में ७३वें और ७४वें संशोधन के द्वारा स्थानीय निकायों को स्वायत्तशासी मान्यता दी गयी । इसमें यह भी बताया गया कि इन निकायों का किस किस प्रकार से गठन किया जायेगा। संविधान के अनुच्छेद २४३-डी और २४३-टी के अंतर्गत, इन निकायों के सदस्यों एवं उनके प्रमुखों की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित की गयीं हैं। यह सच है कि इस समय इसमें चुनी महिलाओं का काम, अक्सर उनके पति ही करते हैं पर शायद एक दशक बाद यह दृश्य बदल जाय।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम है। हमारे देश में इसका प्रयोग उस तरह से नही किया जा रहा है जिस तरह से किया जाना चाहिये। अभी उपभोक्ताओं में और जागरूकता चाहिये। इसके अन्दर हर जिले में उपभोक्ता विवाद प्रतितोष मंच (District Consumer Disputes Redressal Forum) का गठन किया गया है।  इसमें कम से कम एक महिला सदस्य होना अनिवार्य है {(धारा १०(१)(सी), १६(१)(बी) और २०(१)(बी)}।

परिवार न्यायालय अधिनियम के अन्दर परिवार न्यायालय का गठन किया गया है।  पारिवारिक विवाद के मुकदमें इसी न्यायालय के अन्दर चलते हैं।  इस अधिनियम की धारा ४(४)(बी) के अंतर्गत, न्यायालय में न्यायगण की नियुक्ति करते समय, महिलाओं को वरीयता दी गयी है।

अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज Convention of Elimination of Discrimination Against Women (CEDAW) (सीडॉ) है। सन १९७९ में, संयुक्त राष्ट्र ने इसकी पुष्टि की। हमने भी इसके अनुच्छेद ५(क), १६(१), १६(२), और २९ को छोड़, बाकी सारे अनुच्छेद को स्वीकार कर लिया है।  संविधान के अनुच्छेद ५१ के अंतर्गत न्यायालय अपना फैसला देते समय या  विधायिका कानून बनाते समय, अंतर्राष्ट्रीय संधि (Treaty) का सहारा ले सकते हैं।  इस लेख में आगे कुछ उन फैसलों और कानूनों की चर्चा रहेगी जिसमें सीडॉ का सहारा लिया गया है।

व्यक्ति शब्द पर ६० साल का विवाद

भूमिका
हमारा समाज पुरुष प्रधान है। इसके मानक पुरुषों के अनुरूप रहते हैं। तटस्थ मानकों की भी व्याख्या, पुरुषों के अनुकूल हो जाती है। कानून में हमेशा माना जाता है कि जब तक कोई खास बात न हो तब तक पुलिंग में, स्त्री लिंग सम्मिलित माना जायेगा। कानून में कभी कभी पुलिंग, पर अधिकतर तटस्थ शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं जैसे कि ‘व्यक्ति’। अक्सर कानून कहता है कि, यदि किसी ‘व्यक्ति’ (person),

  • की उम्र ….. साल है तो वह वोट दे सकता है,
  • ने —- साल ट्रेनिंग ले रखी है तो वह वकील बन सकता है,
  • ने विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त की है तो वह उसके विद्या परिषद (Academic council) का सदस्य बन सकता है,
  • को गवर्नर जनरल, सेनेट का सदस्य नामांकित कर सकता है।

ऐसे कानून पर अमल करते समय, अक्सर यह सवाल उठा करता था कि इसमें ‘व्यक्ति’ शब्द की क्या व्याख्या है।  इसके अन्दर हमेशा पुरूषों को ही व्यक्ति माना गया, महिलाओं को नहीं। यह भी अजीब बात है। भाषा, प्रकृति तो महिलाओं को व्यक्ति मानती है पर कानून नहीं।  महिलाओं को, अपने आपको, कानून में व्यक्ति मनवाने के लिए ६० साल की लड़ाई लड़नी पड़ी और यह लड़ाई शुरू हुई उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से।

व्यक्ति शब्द पर इंगलैंड में कुछ निर्णय

इस बारे में सबसे पहला प्रकाशित निर्णय Chorlton Vs. Lings (१८६९) का है । इस केस में कानून में पुरूष शब्द का प्रयोग किया गया था। उस समय और इस समय भी, इंगलैंड में यह नियम था कि पुलिंग में, स्त्री लिंग भी शामिल है। इसके बावजूद यह प्रतिपादित किया कि स्त्रियां को वोट देने का अधिकार नहीं है। इंगलैण्ड के न्यायालयों में इसी तरह के फैसले होते रहे जिसमें न केवल पुरूष बल्कि व्यक्ति शब्द की व्याख्या करते समय, महिलाओं को इसमें सम्मिलित नहीं माना गया। जहां व्यक्ति शब्द का भी प्रयोग किया गया था वहां भी महिलाओं को व्यक्ति में शामिल नहीं माना गया। इन मुकदमों में Bressford Hope Vs. Lady Sandhurst (1889), Ball Vs. Incorp, society of Law Agents (1901) उल्लेखनीय है।  1906 में इंगलैण्ड की सबसे बड़ी अदालत हाउस आफ लॉर्डस ने Nairn Vs. Scottish University में यही मत दिया।  यही विचार वहीं की अपीली न्यायालय ने Benn Vs. Law Society (१९१४) में व्यक्त किये।

इंगलैंड में यही क्रम जारी रहा।  इन न्यायालयों में लड़ाई के अतिरिक्त वहां समाज में भी यह मांग उठी कि महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिले।  भारत के पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्जन भी महिलाओं को वोट का अधिकार देने के विरोधी खेमी में थे।  उनका तो यहां तक कहना था कि यदि भारत के लोगों को पता चलेगा कि इंगलैण्ड की सरकार महिलाओं के वोट पर बनी है तो भारतवासी उस सरकार पर वह विश्वास करना छोड़ देगें।  इंगलैंण्ड में महिलायें वोट देने के अधिकार से १९१८ तक वंचित रहीं।  उन्हें इसी साल कानून के द्वारा वोट देने का अधिकार मिला।  इंगलैण्ड में स्त्रियों के साथ बाकी भेदभाव लैंगिक अयोग्यता को हटाने के लिए १९१९ में बने अधिनियम से हटा।

व्यक्ति शब्द पर अमेरिका में कुछ निर्णय

अमेरिका तथा अन्य देशों में व्यक्ति शब्द की व्याख्या का इतिहास कुछ अलग नहीं था।  अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने Bradwell Vs. Illinois (१८७३) में व्यवस्था दी है कि विवाहित महिलायें व्यक्ति की श्रेणी में नहीं हैं और वकालत नहीं कर सकतीं।  इसके दो वर्ष बाद ही Minor Vs. Happier Sett के केस में अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने यह तो माना कि महिलाएं नागरिक हैं पर यह भी कहा कि वे विशेष श्रेणी की नागरिक हैं और उन्हें मत डालने का अधिकार नहीं हैं। अमेरिका में २१ वर्ष से ऊपर की महिलाओं को मत देने की अनुमति अमेरिकी संविधान के १९वें संशोधन (१९२०) के द्वारा ही मिल पायी।

व्यक्ति शब्द पर दक्षिण अफ्रीका में कुछ निर्णय

इस विवाद के परिपेक्ष में, दक्षिण अफ्रीका का जिक्र करना जरूरी है। यहां पर इस तरह के पहले मुकदमे Schle Vs. Incoroporated Law Society (1909), में महिलाओं को व्यक्ति शब्द में नहीं शामिल किया गया और उन्हें वकील बनने का हकदार नहीं माना गया।  पर केपटाउन की न्यायालय ने १९१२ में माना कि महिलाएं ‘व्यक्ति’ शब्द में शामिल हैं और वकील बनने की हकदार हैं।  कहा जाता है कि इस तरह का यह एक पहला फैसला था।  लेकिन यह ज्यादा दिन तक नहीं चला। यह निर्णय अपीलीय न्यायालय द्वारा Incorporated Law Society Vs. Wookey (1912) में रद्द कर दिया गया।  इस अपीलीय न्यायालय के फैसले का आधार यही था कि महिलाएं व्यक्ति शब्द की व्याख्या में नहीं आती हैं।

व्यक्ति शब्द पर विवाद का अन्त

इस विवाद का अन्त कनाडा के एक मुकदमे Edwards Vs. Attorney General में हुआ।  कनाडा के गर्वनर जनरल को सेनेट में किसी व्यक्ति को नामांकित करने का अधिकार था।  सवाल उठा कि क्या वे किसी महिला को नामांकित कर सकते हैं।  कैनाडा के उच्चतम न्यायालय ने सर्व सम्मति से निर्णय लिया कि महिलायें व्यक्ति शब्द में शामिल नहीं हैं।  इसलिये वे नामित नहीं हो सकती हैं।  इस फैसले के खिलाफ अपील में, प्रिवी कांऊसिल ने स्पष्ट किया है कि, ‘व्यक्ति शब्द में स्त्री-पुरूष दोनों हो सकते हैं और यदि कोई कहता है कि व्यक्ति शब्द में स्त्रियों को क्यों शामिल किया जाय तो जवाब है कि “क्यों नहीं”?’  लेकिन यह वर्ष १९२९ में हुआ।  आइये देखें कि अपने देश में क्या हुआ।

व्यक्ति शब्द पर भारत में कुछ निर्णय: कलकत्ता और पटना उच्च न्यायालय

अपने देश में भी ‘व्यक्ति’ शब्द की व्याख्या करने वाले मुकदमे हुए हैं।  पहले वकील नामांकित करने का काम उच्च न्यायालय करता था।  अब यह काम बार कौंसिल करती है। वकील नामांकित करने के लिए लीगल प्रैक्टिशनर अधिनियम हुआ करता था इसमें ‘व्यक्ति’ शब्द का इस्तेमाल किया गया था।  महिलाओं ने इसी अधिनियम के अन्दर वकील बनने के लिए कलकत्ता एवं पटना उच्च न्यायालयों में आवेदन पत्र दिया।  कलकत्ता उच्च न्यायालय की पांच न्यायमूर्ति की पूर्ण पीठ ने १९१६ में {In re Reging Guha (ILR 44 Calcutta 290= 35 IC 925)} तथा पटना उच्च न्यायालय की तीन न्यायमूर्तियों की पूर्ण पीठ ने १९२१ में {In re Sudhansu Bala Mazra (A.I.R. 1922 Patna 269) } ने निर्णय दिया कि महिलाएं व्यक्ति शब्द में शामिल नहीं हैं और उनके आवेदन को निरस्त कर दिया गया। इसके बाद यह प्रश्न नहीं उठा क्योंकि १९२३ में The Legal Practitioners (Women) Act के द्वारा महिलाओं के खिलाफ इस भेदभाव को दूर कर दिया गया।   पर क्या किसी उच्च न्यायालय ने महिलाओं के पुराने कानून में व्यक्ति होना माना। जी हां-वह है इलाहाबाद उच्च न्यायालय।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय क्रॉर्नीलिआ सोरबजी (Cornelia Sorabjee)

क्रॉर्नीलिआ सोरबजी, एक पारसी महिला थीं।  उनका भाई बैरिस्टर था और वह इलाहाबाद वकालत करने आया।  वह उसी के साथ उसके घर का रख-रखाव करने आयीं।  उन्हें वकालत का पेशा अच्छा लगा और उन्होंने वकालत करने की ठानी। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सामने अपना आवेदन पत्र वकील बनने के लिये दिया जो पहले खारिज कर दिया गया पर उनका १ अगस्त १९२१ को वकील की तरह नामित करने के लिये दिया गया आवेदन पत्र, ९ अगस्त १९२१ में स्वीकार हुआ।  यह नामांकन उच्च न्यायालय की इंगलिश (प्रशासनिक) बैठक में हुआ था इसलिए यह प्रकाशित नहीं है पर पटना उच्च न्यायालय के द्वारा दिये गये फैसले में इसका तथा कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले का संदर्भ कुछ इस तरह से उल्लिखित है।

‘A recent instance has been brought to our notice where a lady (Miss Sorabjee) has been enrolled as a vakil of the Allahabad High Court. This was done by a decision of the English meeting of the Court consisting of the Chief Justice and the Judged present in Allahabad, under R.15 of Chap.XV of the Allahabad High Court Rules. In matters of practice, however, we generally follow the tradition of the Calcutta High Court and we do not think that we can deviate from the decision of that Court passed on the 29th of August 1916 in Regina Guha’s case only a few months after the creation of our High Court.

No doubt, the recent admission of Miss Sorabjee in the Allahabad High Court might create some anomaly, inasmuch as ladies enrolled as vakils in the Allahabad High Court may claim to practise in occasional cases in the Courts subordinate to this Court under Sec.4 of the Legal Practitioners Act, although no lady will be permitted to be enrolled in our own High Court. This again is a very good ground for changing the present law.’

क्रॉर्नीलिआ सोरबजी ‘व्यक्ति’ शब्द के अन्दर नामांकित होने वाली भारत की ही पहली महिला नहीं, बल्कि व्यक्ति खण्ड के अधीन दुनिया में कहीं भी नामांकित होने वाली पहली महिला थीं।  दक्षिण अफ्रीका का मात्र एक पहला मुकदमा ज्यादा दिन तक नहीं चला।  वह उसी वर्ष निरस्त कर दिया गया।   क्रोनीलिआ से पहले भी कई महिलायें नामांकित हुई हैं लेकिन वे विशेष कानून की वजह से हुआ था जिसमें महिलाओं को वकील बनने का अलग से अधिकार दिया गया था।

सुश्री सुपर्णा गुप्तू (Suparna Gooptu) ने क्रॉर्नीलिआ सोरबजी की जीवनी Cornelia Sorabjee – India’s Pioneer Woman lawyer नाम से लिखी है इसे Oxford University Press ने प्रकाशित किया है।  इसमें वे कहती हैं कि क्रॉर्नीलिआ सोरबजी समाज सेविका तो थी पर वे अंग्रेजी हूकूमत की समर्थक भी थी।  इस पुस्तक में लिखा है कि वे ३० अगस्त को १९२१ को नामांकित की गयी थीं तथा यहां लिखा है कि वे २४ अगस्त को नामांकित की गयी थीं पर शायद दोनों बात सही नहीं हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की इंगलिश (प्रशासनिक) बैठक जिसमें उनका आवेदन पत्र स्वीकार किया गया वह ९ अगस्त १९२१ को हुई थी पर उच्च न्यायालय ने क्रॉर्नीलिआ सोरबजी को इस बात के लिये पत्र दिनांक ३० अगस्त १९२१ को भेजा था।  यह तारीख महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि चाहे जो भी तारीख हो वे इस तरह की पहली महिला थीं।

-उन्मुक्त

(क्रमशः)

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