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सक्षम जनतांत्रिक न्याय व्यवस्था की स्थापना की कामना

मित्रों और पाठकों¡

दैव की तरह दीपावली आई और अब विदा ले रही है।  यह तीसरा खंबा की छठी दीपावली थी।  लगभग पाँच वर्ष हुए दीपावली के कुछ दिन पूर्व 28 अक्टूबर 2007 को ‘तीसरा खंबा’ एक ब्लाग के रूप में आरंभ हुआ यह नितांत वैयक्तिक प्रयास एक दिन वेबसाइट का रुप ले लेगा और इस के पाठकों के लिए एक जरूरी चीज बन जाएगा, ऐसा मैं ने सोचा भी नहीं था।

रंभ में सोचा यही गया था कि यदा कदा मैं अपने इस ब्लाग पर न्याय व्यवस्था के बारे में अपने विचारों को प्रकट करते हुए कुछ न कुछ विचार विमर्श करता रहूंगा। जब भी कहीं विमर्श आरंभ होता है तो वह हमेशा ही कुछ न कुछ कार्यभार उत्पन्न करता है। यदि विमर्श के दौरान समस्याओं के कुछ हल प्रस्तुत होते हैं तो फिर यह बात निकल कर सामने आती है कि समस्याओं के हल की ओर आगे बढ़ा जाए।  समस्याग्रस्त लोगों के सामने जो हल प्रस्तुत करता है उसी से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह हल की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कोई अभियान का आरंभ करे, उस के रास्ते पर उन का पथप्रदर्शक भी बने।  दुनिया के छोटे बड़े अभियानों से ले कर समाज को आमूल चूल बदल देने वाली क्रांतियों का आरंभ इसी तरह के विमर्शों से हुआ है।

न्याय समाज व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है।  समाज के छोटी से छोटी इकाई परिवार से ले कर  बड़ी से बड़ी इकाई राज्य को स्थाई बनाए रखने के लिए न्याय आवश्यक है। यदि चार लोग साथ रहते हों और जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं को जुटाने का काम करते हों तो भी जो कुछ वे जुटा लेते हैं उस का उपयोग वे न्याय के बिना नहीं कर सकते। एक दिन के शाम के भोजन के लिए कुछ रोटियाँ जुटाई गई हैं तो उन का आवश्यकतानुसार न्यायपूर्ण वितरण आवश्यक है। यदि उन में से दो लोग सारी रोटियाँ खा जाएँ तो शेष दो लोगों को भूखा रहना होगा। एक-आध दिन  और यदा-कदा तो यह चल सकता है लेकिन यदि नियमित रूप से ऐसा ही होने लगे तो दोनों पक्षों में संघर्ष निश्चित है और साथ बना रहना असंभव। जब चार लोगों का एक परिवार बिना न्याय के एकजुट नहीं रह सकता तो एक गाँव, एक शहर, एक अंचल, एक प्रान्त और एक देश कैसे एकजुट रह सकता है।  इस कारण मैं अक्सर यह कहता हूँ कि न्याय मनुष्य की रोटी से पहले की आवश्यकता है।

ज समाज में न्याय पूरी तरह हमारी संवैधानिक व्यवस्था पर निर्भर है।  भारत के गणतंत्र का रूप लेने और संविधान के अस्तित्व में आने पर उसने एक न्याय व्यवस्था देने का वायदा इस देश की जनता के साथ किया। इस संवैधानिक न्याय व्यवस्था के लागू होने की एक अनिवार्य शर्त यह भी थी कि इस के वैकल्पिक उपायों का पूरी तरह उन्मूलन कर दिया जाए। लेकिन गणतंत्र के 63वें वर्ष में भी संवैधानिक न्याय व्यवस्था पूरी तरह स्थापित नहीं हो सकी है और संविधानेतर संस्थाएं (जातीय पंचायतें और खापें) अब भी मनमाना न्याय कर रही हैं और अपने जीवन को बनाए रखने के लिए समाज के जातिवादी विभाजन पर आधारित प्राचीन  संगठनों से शक्ति प्राप्त करती हैं।  एक जनतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए इन पुरानी संस्थाओं और संगठनों का समाप्त किया जाना नितांत आवश्यक था। इन पुरानी संस्थाओं और उन के अवशेषों को पूरी तरह समाप्त करने का यह कार्यभार गणतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं पर था।  लेकिन जब जातिवाद ही सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद के सदस्यों को चुने जाने का आधार बन रहा हो वहाँ यह कैसे संभव हो सकता था? हमारा जनतांत्रिक गणतंत्र एक चक्रव्यूह में फँस गया है जिस में जातिवादी संस्थाएँ संसद को चुने जाने का आधार बन रही हैं।  संसद को इन संस्थाओं की रक्षा करने की आवश्यकता है। जिस के लिए जरूरी है कि संवैधानिक न्याय व्यवस्था अधूरी और देश की आवश्यकता की पूर्ति के लिए नाकाफी बनी रहे जिस से इन जातिवादी संस्थाओं को बने रहने का आधार नष्ट न हो सके। जनतंत्र कभी सफल हो ही नहीं सके।

दि देश की जनता को वास्तविक जनतंत्र चाहिए तो उसे इस चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। वास्तविक जनतंत्र इस देश की श्रमजीवी जनता, उजरती मजदूरों-कर्मचारियों, किसानों, विद्यालयों-महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों, बेरोजगार व रोजगार के लिए देस-परदेस में भटकते नौजवानों की महति आवश्यकता है। वे ही और केवल वे ही इस चक्रव्यूह को तोड़ सकते हैं। लेकिन उन्हें इस के लिए व्यापक एकता बनानी होगी।

ह एक मकसद था जिस के लिए तीसरा खंबा ब्लाग के रूप में आरंभ हुआ था।  एक न्यायपूर्ण जीवन की स्थापना सुंदर और उत्तम लक्ष्य तो हो सकता है पर उस की प्राप्ति के लिए जीवन को जीना स्थगित नहीं किया जा सकता। वह तो जैसी स्थिति में उस में भी जीना पड़ता है।  वर्तमान समस्याओं से लगातार निपटते हुए जीना पड़ता है।  यह एक कारण था कि तीसरा खंबा से पाठकों की यह अपेक्षा हुई कि वह वर्तमान समस्याओं के अनन्तिम और अपर्याप्त ही पर मौजूदा हल भी प्रस्तुत करे। तीसरा खंबा को यह आरंभ करना पड़ा।  आज स्थिति यह है कि तीसरा खंबा के पास सदैव उस की क्षमता से अधिक समस्याएँ मौजूदा समाधान के लिए उपस्थित रहती हैं।  पिछले एक डेढ़ वर्ष में यह भी हुआ कि तीसरा खंबा जो बात लोगों के सामने रखना चाहता था वे नैपथ्य में चली गईं और समस्याओं के मौजूदा समाधान मंच पर आ कर अपनी भूमिका अदा करते रहे।

सी बीच इस वर्ष के आरंभ में तीसरा खंबा को वेब साइट का रूप मिला।  शायद यह कभी संभव नहीं होता यदि तीसरा खंबा के आरंभिक मित्र श्री बी.एस.पाबला  इस के लिए लगातार उकसाते न रहते और इसे तकनीकी सहायता प्रदान न करते।  अंततः आप इसे एक वेबसाइट के रूप में देख पा रहे हैं।  इस रूप में इस पाठकों की संख्या के साथ कानूनी समस्याओं में भी वृद्धि हुई।  पहली जनवरी से दीपावली की रात्रि तक इस पर पाठकों की संख्या ने 1,00,000 का आंकड़ा प्राप्त कर लिया।  हमें यह महुसूस हुआ कि प्रतिदिन एक समस्या का समाधान प्रस्तुत करना पर्याप्त नहीं है। उसे बढ़ा कर दो करना पड़ा। लेकिन कानूनी समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करना मात्र इस वेब साइट का एक-मात्र लक्ष्य न तो कभी था और न हो सकता है। हम चाहते हैं कि सप्ताह में कुछ विशिष्ठ आलेख वर्तमान न्याय व्यवस्था की समस्याओं और एक जनतांत्रिक आवश्यकता के लिए आवश्यक आदर्श न्याय व्यवस्था के लक्ष्य पर प्रकाशित किए जाएँ।  लेकिन यह तभी संभव है जब तीसरा खंबा के कुछ सक्षम मित्रों की सहभागिता इस में रहे।  सभी सक्षम मित्रों से आग्रह है कि इस काम में तीसरा खंबा के साथ खड़े हों और न्याय व्यवस्था के संबंध में अच्छे आलेखों से इस वेब साइट की समृद्धि में अपना योगदान करें। पिछले सप्ताह तीसरा खंबा पर एक आलेख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ का एक आलेख प्रकाशित भी किया। जैसे जैसे हमें मित्र लेखकों से ऐसे विशिष्ठ आलेख प्राप्त होंगे हम उन्हें तीसरा खंबा में स्थान देंगे। इस तरह हमारी कोशिश होगी कि हम तीसरा खंबा पर प्रतिदिन दो समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करें और जितना संभव हो न्याय व्यवस्था पर विशेष आलेख प्रस्तुत करें।

दीपावली के अवसर पर तीसरा खंबा अपने सभी पाठकों और मित्रों का हार्दिक अभिनंदन करता है।  सभी के लिए हमारी शुभकामना है कि वे आने वाले समय में जीवन को और अधिक उल्लास के साथ जिएँ।  साथ ही यह आशा भी है कि तीसरा खंबा को पाठकों और मित्रों का सहयोग लगातार प्राप्त होता रहेगा।

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