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सरकारों के माई-बाप

ज फिर खबर है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने कहा है कि न्यायपालिका को अतिसक्रियता दिखाते हुए ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिस से शासनप्रणाली के अन्य घटक प्रभावित हों। वे हैदराबाद में आयोजित सत्रहवें राष्ट्रमंडल विधि सम्मेलन में बोल रहे थे। हालाँकि उन्हों ने और दूसरी बातें भी कहीं, जैसे सरकारी जिम्मेदारियाँ तय करने में न्यायिक समीक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन इस का इस्तेमाल कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के कामकाज में हस्तक्षेप के रूप में नहीं होना चाहिए।  उन्हों ने यह भी कहा कि तेजी से बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य में देश में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नीतियाँ और कानून बनाए जाने चाहिए जिस से आतंकवाद, गरीबी, भूख, कुपोषण, मानवाधिकारों का संरक्षण और जलवायु परिवर्तन जैसी समान अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों से निपटा जा सके। उन का कहना था कि तेज आर्थिक विकास के जरिए ही दूर किया जा सकता है।

प्रधानमंत्री जी! मुझे यह समझ नहीं आया कि आखिर आप न्याय पालिका से कहना क्या चाहते थे? या सिर्फ कहना नहीं अपितु हड़काना चाहते थे। आतंकवाद, गरीबी, भूख, कुपोषण, मानवाधिकारों का संरक्षण और जलवायु परिवर्तन जैसी समान अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों से निपटने में कहाँ न्यायपालिका आड़े आ रही है? उस ने शायद एक भी निर्णय ऐसा नहीं किया है जिस से सरकार को इन चुनौतियों से निपटने में कोई बाधा उत्पन्न हुई हो। वैश्विक परिदृश्य में देश में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नीतियाँ और कानून बनाने का काम तो खुद कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और विधायिका के हैं, उस से उन्हें कौन रोक रहा है? 
न दिनों तो सब तरफ सरकार में फैले भ्रष्टाचार और विदेशी बैंकों में जमा भारतियों के काले धन की चर्चा है। इसी मामले में न्यायपालिका ने कुछ फैसले दिए हैं और कुछ निर्देश दिए हैं। कहीं आप  का इशारा उन्हीं की तरफ है तो यह एक गंभीर बात है। क्या आप चाहते हैं कि सरकारें भ्रष्टाचार में ऊब-डूब होती रहें और न्यायपालिका चुपचाप बैठी रहे। वह तो ऐसा नहीं कर सकती। न्यायपालिका के दरवाजे हर व्यक्ति के खुले हैं। वह वहाँ याचिका दायर कर सकता है, किसी नागरिक को न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाने से कौन रोकेगा? यह काम तो वह खुद भी नहीं कर सकती। जब ऐसी याचिकाओं में तथ्य होंगे तो उसे सुनवाई भी करनी पड़ेगी और सरकारों को आदेश-निर्देश भी देने पड़ेंगे। प्रधानमंत्री जी! आप का इशारा कहीं इस ओर तो नहीं कि न्यायपालिका ऐसी याचिकाओं की सुनवाई न करे, या उन्हें सुनवाई के लिए स्वीकार न करे। 
क और तो केन्द्र और राज्य सरकारों ने पर्याप्त अदालतें न खोल कर जनता के लिए न्याय के दरवाजे लगभग बंद कर दिए हैं। जनता है कि अदालत में दरख्वास्त तो कर सकती है। लेकिन अदालत से उस की दरख्वास्त का फैसला उस के जीवनकाल में हो जाएगा इस का उसे भरोसा नहीं है। एक गरीब आदमी तो अदालत की देहरी चढ़ने में हिचकता है। ऐसे में धनिकों, बाहुबलियों की चढ़ बनी है। प्रधानमंत्री जी! राज आप का नहीं उन का है। आप तो एक सिपाही की तरह उस की रक्षा कर रहे हैं। काहे खाली-पीली आतंकवाद, गरीबी, भूख, कुपोषण, मानवाधिकारों का संरक्षण और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों की बातें करते हैं? अब तो इन बातों का कोई प्रभाव जनता पर पड़ता नहीं है। 
रीब और श्रमजीवी जनता न्याय के लिए अदालत के दरवाजे चाहे फटक भी न पाए, लेकिन आप के विधिमंत्री मोईली जी को  उच्च न्यायालयों में लंबित वाणिज्यिक और कारपोरेट मामलों की बेहद चिंता है। उन्हों ने इसी सम्मेलन में बताया है कि इन मामलों के निपटारों के लिए एक अलग शाखा के गठन के लिए संसद में विधेयक पेश किया है। क्या जनता नहीं समझती कि आप एक अधिकरण बनाएंगे जिस का नियंत्रण सरकार के हाथ में होगा, तब मामला उच्च न्यायालयों की जद से बाहर चला जाएगा। लेकिन भारत के संविधान का क्या करेंगे आप जिस में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को उन के विरुद्ध मामले सुनने का क्षेत्राधिकार है। अधिकरण के आदेशों और प्रक्रिया के मामले में रिटें जारी करने का अधिकार तो फिर भी इन न्यायालयों को ही रहेगा। प्रधानमंत्री जी! मोईली जी के इस बयान से आप की और आप की सरकार की प्रतिबद्धता साफ नजर आती है। देश की गरीब मध्यवर्गीय जनता जो देश की आबादी का 80 प्रतिशत हिस्सा है, उस के साथ कोई आप की सरकार का कोई लेना-देना नहीं, लेकिन मुट्ठीभर कारपोरेटों की अवश्य चिंता है। आखिर वे ही तो सरकारों के माई बाप हैं।
कैरीकेचर बालाकृष्णन के अनत के ऑनलाइन कार्टून एक्जीबीशन से साभार।
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