हम चल रहे थे इस सवाल पर कि अदालतों की संख्या कैसे बढ़े? पर ममता जी का एक मासूम सवाल आ गया। वे परेशान थीं अदालतों के तारीख पर तारीख के सिस्टम से, और चाहती थीं कि वकील और न्यायाधीश नजरिया बदलें तो ये भी बदले।
आप ने न्याय करने के पुराने किस्से सुने होंगे। उनमें भी पहली पेशी पर राजा, या मुखिया पहले शिकायत सुनता था। फिर प्रतिवादी को बुला कर उस को सुनता था। फिर बारी-बारी से सबूत मांगता था। परीक्षण भी करता था। फिर निर्णय देता था। इस तरह न्याय की इस प्रक्रिया में कुछ तो समय लगता ही था। न्याय करना एक महत्वपूर्ण काम है। जो कुछ समय तो लेगा ही। बस यह आवश्यक और औचित्यपूर्ण होना चाहिए। अगर किसी अदालत में कोई पेशी है तो उस पर कोई न कोई काम जरूर होना चाहिए। किसी का भी समय फालतू नहीं जाना चाहिए।
लेकि न आज ऐसा नहीं है। ज्यादातर पेशियों पर कोई काम नहीं होता बस पेशी बदल जाती है।
इस का कारण भी अदालतों के पास उन की क्षमता से कई गुना अधिक काम होना है। हमारे तंत्र में एक अदालत के पास पाँच सौ से अधिक मुकदमें नहीं होना चाहिए। मगर होते इस से कई गुना अधिक। एक दो हजार से ले कर पाँच सात हजार तक। एक दिन में अदालत बीस से पच्चीस मुकदमों में सुनवाई कर सकती है, अधिक नहीं। अदालत केवल इतने ही मुकदमों में पेशी रखे तो जिस अदालत में पन्द्रह सौ मुकदमे हैं। उस में भी एक मुकदमें में अगली सुनवाई की तारीख निश्चित ही कम से कम तीन माह में पड़ेगी। इस तरह साल में केवल चार पेशियां। अदालत में मुकदमें तीन हजार से अधिक हों तो यह पेशी छह माह में होगी और पांच हजार से अधिक होने पर ग्यारह माह में अगली सुनवाई हो सकेगी। अब साल में एक ही पेशी होने लगे तो मुकदमा कम से कम बीस साल तो चलना ही है।
इस तरह ये पेशियां जो बदलती हैं वे भी अदालतों की संख्या कम होने और उन के पास मुकदमे क्षमता से कई गुना अधिक होने के कारण ही बदलती हैं। आज से पच्चीस साल पहले जिस अदालत में मैं काम किया उसमें पाँच-छह सौ मुकदमें हुआ करते थे और हर माह में दो बार पेशी पड़ जाती थी। साल डेढ़ साल में मुकदमें में फैसला हो जाता था। अब उसी अदालत में छह माह से कम की अगली सुनवाई की पेशी हासिल करना टेड़ी खीर है, अदालत में मुकदमों की संख्या चार हजार के लगभग है। पहले से तीन गुना मुकदमें रोज सुनवाई के लिए रखे जाते हैं, जिस से सब में काम होना तो संभव नहीं है। कुछ में तो सुनवाई स्थगित होना ही है। कुछ मुकदमों में वाजिब कारणों से भई सुनवाई स्थगित करनी होती है। मसलन कोई पक्षकार या उस का वकील बीमार हो या किसी सामाजिक दायित्व अथवा किसी अन्य वाजिब वजह से पेशी पर आने से असमर्थ हो गया हो। अधिक मुकदमें भी इसीलिये रोज रखे जाते हैं कि इन वाजिब वजहों से कुछ मुकदमों में काम न हो पाए तो शेष मुकदमों में तो काम हो और अदालत, वकील व अन्य लोगों का समय खराब न हो।
इस कारण से यदि अदालतों की संख्या बढ़ती है तो अदालत के पास लम्बित मुकदमों की संख्या घटती है तो मुकदमें जल्दी निपटने लगेंगे। फालतू पेशियों की संख्या काबू में रहेगी। न्याय प्रणाली पर फिर से विश्वास बनने लगेगा।