बबिता वाधवानी ने मानसरोवर, जयपुर, राजस्थान से समस्या भेजी है कि-
मेरा प्रेम विवाह 1994 में आर्य समाज मन्दिर में हुआ। पति के सकाराक व्यवहार न होने के कारण व समय के साथ अपमान करने की हदें पार करने के कारण मैंने सितम्बर 2005 में आपसी सहमति से तलाक ले लिया। तलाक के दिन घर आकर क्योंकि हम एक ही घर के दो कमरों में अलग अलग रहते थे, मैंने कारण पूछा था कि इस नकारात्मक व्यवहार के पीछे क्या कारण था तो मुझे जवाब मिला कि दोस्तो में शर्त लगी थी कि कौन इस लडकी से प्यार का नाटक कर शादी कर सकता है, तो मैंने शर्त जीतने के लिए प्यार का नाटक किया था और तुमसे शादी की थी। मेरी बेटी का जन्म 1997 में हुआ। मैंने कोर्ट में बच्ची की जिम्मेदारी मांगी लेकिन मैंने उसकी पढाई का खर्चा पिता को उठाने के लिए लिखा। मैंने अपने लिए कोई खर्चा नहीं मांगा क्योंकि उसके साथ रहते हुए ही मैंने अपनी कमाई से ही अपने लिए दो रोटी जुटाई तो तलाक के बाद उससे आशा रखना बेकार था। उसने बेटी की जिम्मेदारी मांगी नहीं तो बेटी की कस्टडी मुझे मिल गयी। कोर्ट ने निर्णय में लिखा ही नहीं कि बेटी की पढाई का खर्चा पिता उठायेगा। घर पर हमारी आपसी सहमति थी कि इस घर में मैं व मेरी बच्ची रहेगी, उसे जाना होगा। तलाक के कुछ महीने बाद ही मुझे बैंक का नोटिस मिला कि आपके मकान पर लोन लिया गया है उसकी किस्त चुकाये। मैंने जानकारी जुटायी तो मुझे पता चला कि मकान किसी अन्य स्त्री के नाम किया जा चुका है व मोटी रकम लोन के रूप में ली जा चुकायी है। उस रकम से विदेश यात्रा की जा चुकी थी व रकम खर्च की जा चुकी थी। ये रकम चुकाना मेरे लिए सम्भव नहीं था । मैंने रूवा महिला एजीओ से सम्पर्क भी किया था तो मुझे जवाब मिला दूसरी महिला के नाम मकान हो चुका है तो आपको कुछ नहीं मिलेगा। वो बिक गया और बैंक लोन की रकम चुकाने के बाद मेरे पास थोडी सी रकम बची। मैं दस साल तक किराये के मकान में रही व अतिरिक्त हानि किराये के रूप में उठायी। बेटी की फीस स्कूल में अनियमित रूप से जमा हुयी यानि अकसर फीस का चैक अनादरण हो जाता। मुझे हर बार कोर्ट में शिकायत कर दूंगी कह कर फीस लेनी पडी। आज मेरी बेटी कालेज में आ गयी है। पिछले चार महीने से वो कुछ भी खर्चा बेटी को नहीं भेज रहा क्योंकि वो दिल्ली में रहकर अपनी पढाई कर रही है तो पिता का फर्ज है कि वो उसको खर्चा भेजे। पारिवारिक पेन्शन मुझे प्राप्त होती है लेकिन मुझ पर आर्थिक दबाव आ रहा है। मैं चाहती हूँ कि कानूनी रूप से इस व्यक्ति से कर्तव्यपालन कराया जाये कि बेटी की पढाई का खर्चा नियमित उठाये। लेकिन इस मामले का एक पक्ष ये भी है कि जैसे मैंने अपने लिए कभी खर्चा नहीं मांगा, मेरी बेटी भी शायद ही ये बयान दे कि मुझे पिता से खर्चा चाहिए। क्या ऐसे में केस किया जा सकता है। क्या मैं खुद इस हेतु पारिवारिक कोर्ट में आवेदन दे सकती हूँ। मैं वकील का खर्चा नहीं उठा सकती, राज्य विधिक सेवा बहुत समय लगाती है वकील देने में व राज्य विधिक सेवा से प्राप्त वकील केस में रूचि नहीं लेते ये मैं प्रत्यक्ष देख रही हूँ। कुछ मामलों में, सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते। क्या मैं अपना केस खुद देख सकती हूँ व इसके लिए कौन सी धाराओं में आवेदन करना होगा । क्या कोई आवेदन का तरीका निश्चित है या सादे कागज में लिख कर दिया जा सकता है। इन सब प्रकियाओं में कितना समय लगता है। आवेदन का प्रारूप किसी बेबसाइट पर प्राप्त किया जा सकता है क्या। कानून किसी पुरूष को इतनी छूट कैसे दे सकता है कि वो औरत की गोद में बच्चा दे व उसका भरण पोषण भी न करे।
समाधान-
आप की बेटी का जन्म 1997 में हुआ है उस हिसाब से वह 18 वर्ष की अर्थात बालिग हो चुकी है। इस कारण केवल वही अपने लिए अपने पिता से खर्चा मांग सकती है। न्यायालय में आवेदन उसे ही करना होगा। यदि आप की समस्या यह है कि आप की बेटी स्वयं भी अपने पिता से भरण पोषण का खर्च नहीं मांगना चाहती तो फिर आप इस मामले में कुछ नहीं कर सकतीं। लेकिन यदि वह स्वयं चाहे कि उस का पिता उस के भरण पोषण का खर्च दे तो फिर वह धारा 125 दंड प्रक्रिया संहिता में स्वयं के भरण पोषण के लिए खर्चा अपने पिता से प्राप्त करने का आवेदन का आवेदन कर सकती है। यह आवेदन यदि उस का पिता जयपुर में निवास करता है तो जयपुर के परिवार न्यायालय में किया जा सकता है। परिवार न्यायालय में वकील किए जाने पर वैसे भी वर्जित है वहाँ वकील केवल न्यायालय की अनुमति से ही किसी पक्षकार की पैरवी कर सकते हैं। आप की पुत्री की समस्या यह है कि वह दिल्ली में अपना अध्ययन कर रही है।
इस आवेदन के प्रस्तुत करने के उपरान्त मुकदमे की प्रत्येक सुनवाई पर प्रार्थी का न्यायालय में उपस्थित होना आवश्यक है। किन्तु यदि न्यायालय चाहे तो ऐसा आवेदन देने वाले को व्यक्तिगत उपस्थिति से मुक्त कर सकता है और आप के माध्यम से उपस्थित होने की अनुमति दे सकता है वैसी स्थिति में आप उस की पैरवी कर सकती हैं। लेकिन कम से कम कुछ पेशियों पर आप की बेटी को उस का खुद का बयान दर्ज कराने और जिरह कराने के लिए तो न्यायालय में उपस्थित होना ही पड़ेगा। अब यह आप को सोचना होगा कि आप अपनी बेटी को यह आवेदन करने के लिए तैयार कर सकती हैं या नहीं।
यदि आप किसी वकील की मदद नहीं लेना चाहती हैं तो आप को सारी प्रक्रिया स्वयं जाननी होगी। आवेदन के प्रारूप तो पुस्तकों में मिल जाते हैं। कोई भी हिन्दी में प्रकाशित अभिवचनों की पुस्तक में सभी प्रकार के आवेदनों के प्रारूप मिल जाएंगे। यह पुस्तक आप खरीद सकती हैं। इसी पुस्तक में आप को यह जानकारी भी मिल जाएगी कि अभिवचनों में क्या क्या होना आवश्यक है।
किसी भी मुकदमे में पक्षकार अपनी पैरवी स्वयं कर सकता है यह उस का नैसर्गिकअधिकार है। वकील तो वह स्वयं अपनी मर्जी से ही करता है। कानून ने वकील करने का अधिकार पक्षकार को दिया है। लेकिन वह इस का उपयोग न करना चाहे तो वह स्वतंत्र है। अदालतें वकील लाने की बात बार बार इस कारण करती हैं कि हमारे यहाँ न्याय की प्रक्रिया कुछ अधिक तकनीकी हो गयी है जिस के लिए अनेक जानकारियाँ होनी आवश्यक हैं। वे जानकारियाँ पक्षकार को न होने के कारण न्यायालय का समय बहुत जाया होता है। देश में अदालतें जरूरत की 20 प्रतिशत भी नहीं हैं। कार्याधिक्य होने से वकील करने पर न्यायालय जोर देता है क्यों कि इस से उसे सुविधा होती है। लेकिन कोई भी न्यायालय किसी पक्षकार का मुकदमा केवल इस लिए खारिज नहीं कर सकता कि उस ने वकील नहीं किया है।
यह सही है कि हर एक व्यक्ति के बस का नहीं है कि वह वकील की फीस चुका सके। विधिक सेवा प्राधिकरण में भी वकील देने में समय लगता है और वहाँ से नियत वकील को फीस इतनी कम मिलती है कि वह पैरवी में कम रुचि लेता है। इसी कारण यह योजना एक असफल योजना बन कर रह गयी है।
एक व्यक्ति जो स्वयं अपने मुकदमों की अथवा किसी अन्य व्यक्ति की पैरवी करना चाहता है उसे लगभग वह सब सीखना होता है जो एक वकील अपने प्रोफेशन के लिए सीखता है। यदि आप स्वयं यह काम करना चाहती हैं तो आप को स्वयं यह दक्षता हासिल करनी होगी। बहुत लोग इस देश में हुए हैं जो कि वकील या एडवोकेट न होते हुए भी न्यायालय में पैरवी करते रहे हैं। वर्तमान में भी अनेक लोग ऐसा कर रहे हैं। श्रम न्यायालय में यूनियनों के लीडर और उपभोक्ता न्यायालयों में अनेक व्यक्ति इस तरह पैरवी कर रहे हैं। पर उस के लिए आप को बहुत श्रम करना पड़ेगा। आप चाहें तो स्वयं भी एलएलबी कर सकती हैं और एक एडवोकेट के रूप में बार कौंसिल में अपना पंजीकरण करवा सकती हैं। आप एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं तो आप को तो बार बार न्यायालय में जाना ही होगा। आप को स्वयं कानून की पढ़ाई करने और एक एडवोकेट होने का प्रयत्न करना चाहिए। आप के लिए यह बेहतर होगा। इस तरह आप स्वयं बहुत लोगों की मदद कर पाएंगी।
एक बात और अंत मे आप से कहना चाहूंगा कि हमारी समाज व्यवस्था न्यायपूर्ण नहीं है। इस की न्याय व्यवस्था भी जितना न्याय लोगों को चाहिए उस का सौवाँ अंश भी नहीं कर पाती। इस समाज व्यवस्था को बदलने की जरूरत है, यह सब आप अपने अनुभव से अब तक जान गयी होंगी। लेकिन उस के लिए देश के लाखों-करोडों जनगण को जुटना होगा। बहुत लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं। आप का भी थोड़ा ही सही उस तरफ योगदान है। आप कोशिश करें कि उस काम में कुछ अधिक योगदान कर सकें।