दीवानी के अनुदान के बाद से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी और राजस्व व्यवस्था तो कंपनी के हाथ आ चुकी थी। लेकिन अपराधिक न्याय की व्यवस्था अब भी नवाब के अधीन थी और प्रभावी सिद्ध नहीं हो रही थी। हेस्टिंग्स उस में भी सुधार चाहता था। इस के लिए उसने 1772 में कोलकाता में सदर निजामत अदालत और जिलों में मुफस्सल अदालतें कायम करवाई। उसने नायब नाजिम रज़ा खान को हटवा कर सदडल हक खान को सदर निजामत का दरोगा नियुक्त किया। कलकत्ता में सुप्रीमकोर्ट स्थापित हो जाने के उपरांत 1775 में सदर निजामत को मुर्शिदाबाद ले जाया गया। लेकिन यह व्यवस्था भी कारगर सिद्ध नहीं हुई। न्यायिक अधिकारी स्वैच्छाचारिता और स्वार्थ सिद्धि में लिप्त थे। जघन्य अपराधी मुक्त हो जाते थे और निर्दोषों को दंड मिलता था। नागरिकों में अपने जीवन और संपत्ति की सुरक्षा के प्रति अनिश्चितता व्याप्त थी। अपराध के अन्वेषण के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। हेस्टिंग्स ने इस में आमूल चूल परिवर्तन करने का निश्चय किया।
हेस्टिंग्स ने 1781 की अपनी दांडिक न्यायिक योजना के अंतर्गत अपने मुफस्सल दीवानी अदालतों के न्यायाधीशों को मजिस्ट्रेट के रूप में अपराध का अन्वेषण करने और लिखित आरोप के साथ मुफस्सल निजामत अदालत में विचारण हेतु प्रेषित करने का अधिकार दिया। बाद में इन मजिस्ट्रेटों को सामान्य प्रकृति के अपराधों के मामलों में निर्णय लेने और अधिकतम चार दिन का कारावास या कोड़ों का दंड देने का अधिकार दिया गया। लेकिन यह व्यवस्था कारगर सिद्ध नहीं हुई। मुफस्सल दीवानी अदालतों के पास अपना काम भी होता था जिस से अपराध का अन्वेषण करने और आरोप पत्र दाखिल करने में बहुत समय लगता था और तब तक अभियुक्त को लम्बे समय तक बंदी रहना पड़ता था।
हेस्टिंग्स की न्यायिक योजनाओं से तत्कालीन न्यायिक व्यवस्था के दोष तो उजागर हुए लेकिन सुधार करने के प्रयत्न सफल नहीं हो सके। वास्तव में तत्कालीन न्यायिक व्यवस्था इस दुर्दशा का शिकार थी कि उस में किसी सुधार के लिए कोई स्थान शेष नहीं था। उस के लिए न्यायिक व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन आवश्यक था। लेकिन हेस्टिंग्स के सुधारों ने न्यायिक जगत में एक हलचल अवश्य पैदा कर दी थी।