कल लगा कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय वास्तव में सर्वोच्च है। कानून के राज में कानून सब से बड़ा होना चाहिए। लेकिन जो कानून संसद और विधानसभाओं में रचे जाते हैं तथा जिन की व्याख्या न्यायालय करते हैं वे कभी पूर्ण नहीं होते। समय समय पर उन की कमियाँ उजागर होती है और उन्हें दुरुस्त करने के लिए कानूनों में संशोधन करने और पुराने कानूनों को निरस्त कर के उन के स्थान पर नए कानून बनाने की आवश्यकता होती है। इस का अर्थ यह है कि न्याय की गुंजाइश तब तक बनी रहती है जब तक कि न्याय वास्तव में हो नहीं जाता है। इस का अर्थ हम यह भी कर सकते हैं कि न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए। बहुमत जनता को लगना लगना चाहिए कि न्याय हुआ है। यदि देश की जनता को लगता है कि न्याय नहीं हुआ है तो सारे कानून और उन की व्याख्याएँ भले ही उसे न्याय कहती हों वह अन्याय ही रहेगा।
भोपाल मामले में यही हुआ। जब अदालत से दोषियों को सजा दी गई तो उसे जान कर जनता की आँखें खुली रह गईँ। इतने बड़े अपराध की सजा मात्र इतनी? इस का अर्थ यह जा रहा था कि सक्षम और समर्थ लोगों के लिए भारत एक ऐसा स्थान है जहाँ वे कोई भी अपराध मजे में कर सकते हैं। आखिर कानून और वकील उन्हें बचा ही लेंगे। भोपाल के अपराधियों को जो सजा दी गई थी वह लोगों को लगा ही नहीं कि सजा है। मीडिया ने यहाँ जो भूमिका अदा की वह महत्वपूर्ण थी। उस ने जनता की आवाज को ऊँचा किया जिस से सरकार और अदालतों तक वह पहुँचे। आखिर जनता की उस आवाज ने सरकार को कहीँ अंदर तक दहला दिया। सीबीआई एक उपचारात्मक (curative petition) याचिका ले कर सुप्रीम कोर्ट गई। सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि वास्तव में न्याय होने में कोई कोताही हुई है। उस ने उस मामले में अभियुक्तों को नोटिस जारी किए और मामले को फिर से खुली अदालत में सुनने का निर्णय किया। जब भी लगे कि न्याय नहीं हुआ है तो अदालत अपने निर्णय और कानून से बंधी नहीं हो और न्याय करने को तत्पर हो तभी कहा जा सकता है कि वह न्यायालय सर्वोच्च है।
सरकार और संसद ने इस तरह का कोई कानून बना कर अदालत को नहीं दिया। लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं परिस्थितियों पर विचार कर यह नियम निर्मित किया कि विशेष स्थिति में उपचारात्मक याचिका प्रस्तुत की जा सकती है और उस पर सुनवाई की जा सकती है। आज उसी सरकार को जनदबाव में आ कर उचारात्मक याचिका प्रस्तुत करनी पड़ी। यही सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता है।