हमारी वकील बिरादरी में दो कहावतें मशहूर हैं कि वकील को बिना फीस अपने पिता को भी सलाह नहीं देना चाहिए और बिना मांगे सलाह देने वाला वकील मूर्खों का सरताज है। मैं इन कहावतों की कल तक उपेक्षा करता रहा। लेकिन आज लगता है कि वर्षों से जो कहावतें वकीलों के बीच प्रचलित हैं वे अवश्य ही कई पीढ़ियों के अनुभव का निचोड़ रही होंगी। जब से मैं हिन्दी ब्लाग जगत का भाग बना हूँ, इसे एक परिवार माना है। वैचारिक मतभेद तो परिवार में पिता-पुत्र में भी होते हैं और भाई-भाई के बीच भी। यही सोच कर अपने परिवार के एक सदस्य को विनम्रता पूर्वक एक सलाह दी। भाई ने सलाह को माना भी। लेकिन लोग यह समझाने में लगे हैं कि यह सलाह नहीं थी अपितु धमकी थी। सारी स्वतंत्रताओं पर पाबंदी लगाई जा सकती है। विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता पर पाबंदी प्रत्यक्ष रूप से बहुत लोगों ने नहीं देखी होगी, लेकिन हम ने 1975 से 1977 तक उसे भोगा भी है।
पिछले दो दिनों में एक बात और समझ में आई कि ब्लाग जगत की स्मृति की आयु बहुत क्षीण है। कभी-कभी वह केवल मात्र सप्ताह भर की अथवा दो या तीन दिन की होती है। अभी डी-अजित के मामले को हुए चार माह भी पूरे नहीं हुए हैं, जिस पर सारा ब्लाग जगत हलकान हुआ जा रहा था। केरल के 19 वर्षीय विद्यार्थी डी-अजित के विरुद्ध उन के द्वारा ऑर्कुट पर स्थापित कम्युनिटी पर आई टिप्पणी के लिए महाराष्ट्र में एक मुकदमा दर्ज कराया गया। उन्हें केरल उच्चन्यायालय से अंतरिम जमानत करानी पड़ी। वे उस मुकदमे में प्रथम सूचना रिपोर्ट को खारिज कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे। जहाँ उन की याचिका अस्वीकार कर दी गई और उन्हें कहा गया कि उन्हें महाराष्ट्र उच्चन्यायालय में ही जा कर ऐसी याचिका प्रस्तुत करना चाहिए। आगे क्या हुआ यह पता नहीं। मुझ से इस मामले पर एक आलेख लिखने को कहा गया था। वह जनादेश पर प्रकाशित हुआ। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि डी-अजित कम्प्यूटर विज्ञान के विद्यार्थी हैं कोई बालक नहीं। उन्हें जानना चाहिए कि जो कुछ वे कर रहे हैं वह देश के कानून के मुताबिक है या नहीं। आगे डी-अजित के मुकदमे का क्या हुआ यह अभी पता नहीं। लेकिन केरल हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट फिर बोम्बे हाइकोर्ट तक का सफर तो उन का पता है। कैसे उन्हों ने यह सफर किया होगा? कैसे एक विद्यार्थी ने इन तीन अदालतों का खर्च जुटाया होगा? इस अदालती भागदौड़ में उन के अध्ययन का क्या हुआ होगा? और इस से भी आगे उन के भविष्य के कैरियर का क्या होगा? इन सब का केवल अनुमान किया जा सकता है। वैसे अन्तर्जाल पर प्रकाशित कृतियों की जिम्मेदारी के विषय में नए कानून भी बने हैं। आप चाहें तो नीचे के चित्र पर क्लिक कर उस की एक बानगी देख सकते हैं।
कोई कहीं भी लिखे, अखबार में, किताब में या फिर किसी अंतर्जाल पर प्रकट किए गए शब्दों का मूल्य कानून की दृष्टि में भिन्न नहीं है। उसी समय ब्लाग जगत का सामान्य मानस यह बना कि अपने विचारों को ऐसी भाषा में लिखना चाहिए जिस से वे किसी कानून की जद में न आएँ। डी-अजित को उन के खुद के लिखे के कारण यह सब नहीं भुगतना पड़ा था अपितु उन के द्वारा स्थापित कम्युनिटी पर आई एक टिप्पणी उस का कारण थी। क्यों कि टिप्पण