तीसरा खंबा

उच्च न्यायालयों की दांडिक अधिकारिता : भारत में विधि का इतिहास-79

दिसंबर 1885 में जारी लेटर्स पेटेंट के द्वारा उच्च न्यायालयों की दांडिक अधिकारिता भी निश्चित कर दी गई थी। जो इस प्रकार थी-
1- साधारण आरंभिक दांडिक अधिकारिता- उच्च न्यायालयों की साधारण दांडिक अधिकारिता का विस्तार प्रेसीडेंसी नगर की सीमा में निवास करने वाले समस्त व्यक्तियों और इस सीमा से बाहर रहने वाले ब्रिटिश नागरिकों पर किया गया था। इस अधिकारिता के अंतर्गत उच्च न्यायालय ऐसे सभी व्यक्तियों का विचारण कर सकता था जो विधि की प्रक्रिया द्वारा उस के समक्ष लाए गए हों। इस तरह उच्च न्यायालयों को सुप्रीम कोर्ट की समस्त आरंभिक दांडिक अधिकारिता अंतरित कर दी गई थी। 
2- असाधारण आरंभिक दांडिक अधिकारिता- इस के द्वारा कलकत्ता उच्च न्यायालय को अपने अधीक्षण के अंतर्गत आने वाले किसी भी अधीनस्थ न्यायालय की अधिकारिता के अधीन कहीं भी निवास करने वाले व्यक्तियो का विचारण करने की आरंभिक दी गई थी। इस के अंतर्गत उच्च न्यायालय एडवोकेट जनरल, मजिस्ट्रेट या सरकार द्वारा सक्षम बनाए गए अधिकारी द्वारा उस के समक्ष प्रस्तुत किए गए व्यक्ति पर विचारण कर सकता था। यह उपबंध बिलकुल नया था। इस से पहले सदर निजामत अदालत को इस प्रकार की शक्ति प्राप्त नहीं थी। इस तरह कलकत्ता उच्च न्यायालय की शक्तियों का असीमित विस्तार हो गया था।
3- दांडिक अपीली अधिकारिता- इस के अंतर्गत उच्च न्यायालय अपने अधीक्षण के अंतर्गत अधीनस्थ दांडिक न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई कर सकते थे। लेकिन उसे उच्च न्यायालय की एकल अथवा खंड पीठ के निर्णयों की अपील की सुनवाई का अधिकार नहीं दिया गया था। लेकिन वह ऐसे मामलों में पुनरीक्षण कर सकता था। 
 4- निर्दिष्ट मामलों की सुनवाई और पुनरीक्षण- उच्च न्यायालयों को निर्देशन और पुनरीक्षण का अधिकार दिया गया था। जिस के अंतर्गत वे अपने अधीन सत्र न्यायाधीस या मामलों को निर्दिष्ट करने के लिए नियुक्त अधिकारी द्वारा निर्दिष्ट मामलों की सुनवाई कर सकते थे। वह किसी सक्षम न्यायालय द्वारा मामलों का विचारण किए जाने के उपरांत भी उन के निर्णयों का पुनरीक्षण कर सकता था और दण्ड में उपयुक्त परिवर्तन कर सकता था।
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