प्रेसीडेंसी नगरों में उच्च न्यायालयों की स्थापना भारत में न्यायिक व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव था। इस से पूर्व में प्रचलित दोहरी न्यायिक प्रणाली का अंत हो गया था। यह व्यवस्था व्यावहारिक और सरल थी। पूर्ववर्ती सुप्रीमकोर्ट और सदर दीवानी और सदर निजामत अदालतों की अधिकारिता उच्च न्यायालय में निहित हो जाने से उस का कार्यक्षेत्र अत्यंत विस्तृत हो गया था। पहले सुप्रीम कोर्ट में केवल ब्रिटिश व्यक्ति ही न्यायाधीश हो सकते थे, लेकिन 1861 के अधिनियम से भारतीय व्यक्तियों के हाईकोर्ट में न्यायाधीश बनने का मार्ग खुल गया था। इस अधिनियम से स्थानीय विधियों, प्रथाओं और परंपराओं का न्याय करने में समुचित उपयोग का मार्ग भी खुल गया था।
पूर्व में अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा जिस विधि का उपयोग किया जाता था, सुप्रीमकोर्ट में उस से भिन्न विधि का उपयोग किया जाता रहा था। उच्च न्यायालयों की स्थापना से विधि और साम्य के सिद्धांतों का सभी न्यायलयों में एक जैसा उपयोग आरंभ हो चला था। उच्च न्यायालय अपनी अपीली अधिकारिता में अधीनस्थ न्यायालयों में अपनाई जाने वाली विधि और साम्य के सिद्धांतों का ही उपयोग करने लगे थे। इस से विधि और साम्य के सिद्धांतों में एक रूपता दृष्टिगोचर होने लगी थी। इस ने न्यायपालिका की विश्वसनीयता में वृद्धि की थी। हालांकि अधिनियम में न्यायाधीशों को सद्विवेक से काम लेने की हिदायत दी गयी थी लेकिन इसे परिभाषित न करने के कारण कोई भी न्यायाधीश सद्विवेक का उपयोग किसी भी तरह कर सकता था और इस से कुछ कठिनाइय़ाँ बढ़ गई थीं।
उच्च न्यायालयों की स्थापना के उपरांत ही सिविल प्रक्रिया संहिता दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता के निर्माण को बल मिला और इन के निर्माण से संपूर्ण भारत में दंड व्यवस्था और दीवानी और दांडिक न्याय में प्रक्रिया संबंधी एकरूपता स्थापित हो सकी थी। जिन क्षेत्रों में स्पष्ट विधि संहिताएँ नहीं बनाई गई थीं वहाँ विधि की दुविधा बनी रहती थी। इस तरह 1861 के अधिनियम से भारत में उच्च न्यायालयों की स्थापना विधि और न्याय के क्षेत्र में एक युगांतरकारी घटना हो गई थी। इस व्यवस्था से न्याय प्रशासन के अंतर्विरोधों के समाप्त कर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया था। उच्च न्यायालयों की स्थापना से आंग्ल-भारतीय संहिताओं के सृजन की राह बन गई थी। लेकिन यह सब यूँ ही नहीं हो गया था। इस के पीछे 1857 का आजादी का असफल आँदोलन था जिसे अंग्रेजी सत्ता ने एक विद्रोह के रूप में देखा था। और जब जब भी विद्रोह हुए हैं उस का एक प्रमुख कारण तत्कालीन न्याय व्यवस्था पर से जनता का विश्वास उठना रहा है।