देश में ऐसा पुलिस थाना मिले न मिले हिन्दी के मनोरंजन चैनलों के मशहूर धारावाहिकों में ऐसे दृश्य आम हैं जिनमें मनमर्जी से कानूनों और कानूनी प्रक्रियाओं को गलत रीति से दिखाया जाता है। इतना ही नहीं, भाई की जमानत के लिए भाई पिता से कुछ खाली कागजों पर अंगूठा करवा लेता है और उन कागजों के आधार पर वह अपने पिता की सारी अचल संपत्ति अपने नाम हस्तान्तरित करने का दस्तावेज उप पंजीयक के दफ्तर में पंजीकृत करवा लेता है। इस तरह का दस्तावेज पंजीकृत होते ही भाई में इतनी ताकत आ जाती है कि वह जायदाद अपने कब्जे में कर अपने माता-पिता, दादी और भाभी को अपने घर से निकाल देता है और वे निकल भी जाते हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में देखें तो पाएंगे कि एक दस्तावेज पंजीकृत कराने के लिए न केवल दस्तावेज निष्पादित करने वाले व्यक्ति अपितु जिस के नाम जायदाद हस्तांतरित हो रही है उस व्यक्ति के और गवाहों तक के पहचान पत्र देखे जाते हैं, उन के छायाचित्र दस्तावेज और पंजिकाओं में चिपकाए जाते हैं, उन्हें पंजीयक के कार्यालय में उपस्थित होना जरूरी है जहाँ एक कैमरा उन के चित्र लेता है जो पंजीकृत होने वाले दस्तावेजों के साथ और पंजीयक के कार्यालय के रिकार्ड में रखे जाते हैं। बिना किसी व्यक्ति के उप पंजीयक के कार्यालय में उपस्थित हुए उस की जायदाद किसी अन्य व्यक्ति के नाम हस्तान्तरित नहीं की जा सकती। यदि कोई दस्तावेज ऐसा पंजीकृत हो भी जाए तब भी कोई किसी को उस के निवास स्थान से केवल दस्तावेज के आधार पर नहीं निकाल सकता और निकालने की कहे तब भी कोई क्यों निकलेगा? सब जानते हैं कि जब तक अदालत कब्जा दूसरे को सौंप देने का आदेश न दे दे तब तक किसी व्यक्ति से अचल संपत्ति का कब्जा हासिल नहीं किया जा सकता।
ये तो अक्सर टीवी दर्शक धारावाहिकों में देखते हैं कि एक हिन्दू पति अपनी पत्नी के हस्ताक्षर कुछ कागजों पर हासिल करता है और दोनों का तलाक हो जाता है। जब कि किसी भी हिन्दू दम्पति का विवाह विच्छेद केवल और केवल न्यायालय ही स्वीकृत कर सकता है। यदि यह तलाक दोनों स्वेच्छा से भी ले रहे हों तब भी अर्जी दाखिल करने की तारीख के छह माह की अवधि व्यतीत होने के पहले तलाक मंजूर किया जाना संभव नहीं है।
रोज ही ऐसे दृश्य टेलीविजन पर दिखाए जा रहे हैं जिन में कानूनी स्थितियों को गलत तरीके से दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह कहानी की जरूरत हो। इस के पीछे सब से बड़ी वजह तो इन दृश्य लेखकों की अज्ञानता है। जब वे किसी दृश्य को लिखने बैठते हैं तो यह जानकारी करने की कोशिश नहीं करते कि जो दृश्य वे लिख रहे हैं उस में कानूनी बातों को सही ढंग से दिखाया जा रहा है या नहीं। सीरियलों के निर्माता भी इस बात का प्रयास नहीं करते। इन मामलों पर कोई शोध नहीं होता। यहाँ तक वे कानून के किसी साधारण जानकार से सलाह लेना तक जरूरी नहीं समझते। इस तरह हम पाते हैं कि हमारे लेखक और हमारा मीडिया कानून और कानूनी स्थितियों को सही रूप में दिखाने के प्रति बिलकुल लापरवाह है। वह इस बात की चिंता नहीं करता कि कानूनी स्थितियों को गलत रूप में दिखाने पर आम लोग यह समझने लगते हैं कि देश का कानून ऐसा ही है जैसा उन दृश्यों में दिखाया जा रहा है। टीवी और सिनेमा जो दृश्य माध्यम हैं उन पर जनता को शिक्षित करने का भी भार है। गलत तथ्यों का जनता के बीच प्रचार कर के वे कानूनों और कानूनी स्थितियों के बारे में भ्रम फैला रहे होते हैं। क्या ऐसा करना देश और समाज के प्रति एक गंभीर अपराध नहीं है?
कानून का सिद्धान्त है कि प्रत्येक व्यक्ति को उस पर लागू होने वाले कानूनों की जानकारी होना चाहिए। कभी किसी कार्यवाही में कोई व्यक्ति यह प्रतिरक्षा नहीं ले सकता कि उसे इस कानून की जानकारी नहीं थी। लेकिन यह भी सच है कि सारे कानून न तो सब वकील जानते हैं और न ही हमारे देश के मजिस्ट्रेट और न्यायाधीश। जब उन के सामने कानूनी मामले आते हैं तो उन्हें भी कानूनों को बार बार पढ़ना होता है। ऐसे में न केवल राज्य की यह जिम्मेदारी हो जाती है कि वह कानूनी जानकारियों को आम जनता को इस तरह उपलब्ध कराए कि जो भी कानूनी जानकारी प्राप्त करना चाहता है उसे वह मुफ्त और सहज उपलब्ध हो। अभी तक केन्द्र और राज्य सरकारें अपने इस कर्तव्य को पूरा करने में असफल रही हैं। लेकिन वे इतना तो कर ही सकती हैं कि किसी भी रूप में चाहे वह साहित्य, कहानी, उपन्यास या टीवी सीरियल आदि ही क्यों न हों जनता के बीच कानूनों और सामाजिक गतिविधियों को गलत रूप में प्रस्तुत करने से रोकें। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो कृतिकारों को अपनी कृतियों में कानून और कानूनी स्थितियों को सही रूप में दिखाने के लिए बाध्य करता हो और गलत रूप में दिखाने को रोकने के उपाय करता हो तथा इसे एक दंडनीय अपराध घोषित करता हो।