पिछले दिनों ‘तीसरा खंबा’ से पटना, बिहार के महेश कुमार वर्मा ने पूछा कि “प्रा. कं., लि. कं., प्रा. लि. कं. इत्यादि कंपनी में क्या अंतर है? यह भी बताएं कि ये सब कंपनी किस स्थिति में अपने कामगार को पी.एफ. की सुविधा देने के लिए बाध्य है तथा यदि कंपनी द्वारा पी. एफ. की सुविधा नहीं दी जाती है तो क्या करनी चाहिए? यह भी बताएं कि पी.एफ. के अलावा अन्य कौन सी सुविधा देने के लिए कंपनी बाध्य है?”
आज अंतर्जाल तक प्रत्येक नागरिक की पहुँच सब से आसान चीज है। जो जानकारी अंतर्जाल पर उपलब्ध है उस तक पहुँचना आम नागरिक के लिए दुरूह और अधिक व्ययसाध्य नहीं है। यूँ तो भारत सरकार का यह कर्तव्य होना चाहिए कि संसद द्वारा पारित सभी कानूनों और नियमों को अंग्रेजी और हिन्दी के अतिरिक्त सभी भारतीय भाषाओं में अंतर्जाल पर उपलब्ध कराए। क्यों कि किसी भी कानून की पालना तभी संभव हो सकती है जब कि उस का नागरिकों को ज्ञान हो, या कम से कम जब भी वह इन के बारे में जानना चाहे उसे अपनी भाषा में आसानी से उपलब्ध हो। इसी तरह सभी प्रदेशों को भी प्रादेशिक कानूनों और नियमों को अपने प्रदेशों की भाषाओं में उपलब्ध कराना चाहिए। पर न तो केन्द्र सरकार ही इसे अपना कर्तव्य और दायित्व मानती है और न ही राज्य सरकारें। संसद और विधानसभाएँ कानून पारित करती हैं और सरकारी गजट में प्रकाशित कर छोड़ देती हैं। गजट की प्रतियाँ सीमित होती हैं उतनी ही जितनी कि राजकीय विभागों के लिए आवश्यक हों। इसी से वे लगभग अप्राप्य होते हैं।
किसी भी कानून को अंतर्जाल पर उपलब्ध कराना सरकारों के लिए कोई बड़ा व्यय साध्य काम नहीं है। गजट में प्रकाशन के लिए आज कल सब से पहले कंप्यूटरों पर कानूनों और नियमों की सोफ्टकॉपी तैयार होती है। सभी सरकारों के पास एनआईसी की अंतर्जाल व्यवस्था उपलब्ध है, उन के अपने सर्वर हैं और देश भर में फैला पूरा तामझाम है। सरकारों को करना सिर्फ इतना है कि राजकीय मुद्रणालय गजट प्रकाशन के लिए जो सोफ्टकॉपी तैयार करें उसे एनआईसी को उपलब्ध कराएँ और एनआईसी उसे तुरंत अन्तर्जाल पर उपलब्ध करा दे। होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक सरकार का राजकीय गजट मुद्रित रूप के साथ साथ अंतर्जाल पर भी प्रकाशित हो।
अंग्रेजी में तो यह काम आसानी से हो सकता है। हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं की समस्या यह है कि राजकीय मुद्रणालय गजट की सोफ्टप्रति जिन फोण्टों में तैयार करते हैं वे यूनिकोड के नहीं हैं और उन्हें सीधे सीधे अंतर्जाल पर डालना संभव नहीं है। इस के लिए सब से पहले तो एक ऐसे प्रशासनिक निर्णय की जरूरत है जिस से हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं का कंप्यूटरों पर होने वाला सारा सरकारी कामकाज केवल यूनिकोड फोण्टों में होने लगे। यदि हमें देश के तमाम कामकाज को कंप्म्प्यूटरों पर लाना है तो यह एक न एक दिन करना ही पड़ेगा तो फिर अविलम्ब क्यों न किया जाए?
जब तक सारा काम यूनिकोड़ फोण्टों में न होने लगे तब तक एनआईसी यह कर सकती है कि जिन फोण्टों में काम होता है उन से टेक्स्ट को यूनिकोड फोण्टों में परिवर्तित करने के लिए फोण्ट परिवर्तक तैयार कर ले और राजकीय मुद्रणालयों से सोफ्टकॉपी मिलने पर उस का फोण्ट परिवर्तित कर अंतर्जाल पर उन्हें प्रकाशित कर दे। यह व्यवस्था बिना किसी विशेष खर्च के उपलब्ध साधनों के आधार पर सरकारें लागू कर सकती हैं। देरी केवल सरकारों की इच्छा की कमी और निर्णय लेने अक्षमता में छुपी है। शायद हमारी सरकारें ही नहीं चाहतीं कि देश के नागरिकों को देश का कानून जानना चाहिए। शायद वे हमेशा इस बात से आतंकित रहती हैं कि यदि देश के कानून तक आम लोगों की पहुँच होने लगी तो वे अपना अंधाराज कैसे चला सकेंगे?