चैक अनादरण को अपराध बनाए जाने के मामले में लिखे गए विगत चार आलेखों पर अनेक प्रतिक्रियाएं आई। इन में अनेक प्रश्न और जिज्ञासाएँ भी पाठकों ने सामने रखी। मैं इन में से कुछ को आप के सामने रख रहा हूँ।
ज्ञानदत्त जी पाण्डे की सलाह थी कि ‘चेक बाउन्सिन्ग के मामले कोर्ट कम्प्यूटर प्रासेसिंग के जरीये निपटान या मानीटर क्यों नहीं करता। बहुत कुछ उसी तरह जैसे हम विभागीय तौर पर कोचिंग या माल भाड़ा रिफण्ड के मामले टेकल करते हैं। अदालत को काम करने का तरीका बदलना चाहिये।’
विष्णु बैरागी जी का सोचना भी कुछ ऐसा ही था, ‘मुझे लगता है कि इन प्रकरणों लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, दीवानी मुकदमों की तरह ही ये चलते और चलाए जाते होंगे। इसी कारण, ‘तारीख बढाने’ को हथियार की तरह प्रयुक्त कर, मुकदमे लम्बित किए जा रहे होंगे।’
मैं अनेक बार अपने इसी चिट्ठे पर कह चुका हूँ कि आबादी के अनुपात में भारत में अमरीका के मुकाबले 11 प्रतिशत और ब्रिटेन के मुकाबले 16 प्रतिशत अदालतें हैं। यह भी सही है कि ब्रिटेन की अदालतें अधिक और अमरीका की अदालतें उन से भी अधिक तकनीकी सक्षमं हैं। ऐसी अवस्था में जब कि अदालतें मौजूदा मुकदमों से ही निपट पाने में कम पड़ रही हों और सरकार एक ऐसा कानून बनाए जिस के बनने के के दस वर्ष के बाद इस कानून के अंतर्गत उत्पन्न नए प्रकार के मुकदमों की संख्या पहले से लम्बित अन्य मामलों के जितनी या उस से भी अधिक हो जाए। तो उस का एक ही हल है कि इन नए तरह के मुकदमों के लिए उतने ही न्यायालय और स्थापित किए जाएँ जितने पहले से विद्यमान थे। पर सरकार एक भी नया न्यायालय न खोले तो मुकदमों का अंबार लगेगा ही। उस का दोष न्यायपालिका की कार्यपद्धति .या तकनीकी अक्षमता को नहीं दिया जा सकता। फिर यह मुकदमा दीवानी नहीं अपितु फौजदारी अर्थात दाण्डिक प्रकरण है। इस के विचारण की प्रक्रिया वैसी ही है जैसी चोरी, डकैती या हिंसा के मुकदमों में अपराधी को दंडित करने के लिए होती है।
अभिषेक ओझा की समझ थी कि, ‘कहीं ऐसा तो नहीं की कुछ चेकों पर जितनी रकम होती है, उससे ज्यादा खर्च उसे वसूलने में लग जाता है? कुछ लोग बता रहे थे कि अगर कम पैसे का चेक हो तो कंपनियाँ कुछ कार्यवाही नहीं करती।
ओझा जी की बात बिलकुल सही है। लेकिन उस में एक जानकारी का अभाव भी है। वास्तव में यह मुकदमा चै