मुगल शासन से 1634 में प्राप्त व्यापार की अनुमति के आधार पर ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल में व्यापार कर सकती थी। लेकिन करीब सोलह वर्ष बाद 1650 में हुगली नदी के किनारे उन्हों ने अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया। लेकिन व्यापार में मुगल हस्तक्षेप के कारण बहुत समय तक टकराव की स्थिति बनी रही। अंग्रेजों ने बंगाल के सूबेदार शाइस्ता खाँ पर दमन के आरोप भी लगाए। बंगाल में तब बहुत प्रशासनिक अव्यवस्था थी। 1670 में एक अंग्रेज व्यापारी ने इस का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘वहाँ दुखदाई स्थितियाँ मौजूद हैं और संपन्न व्यक्ति कमजोरों को लूट रहे हैं।’ सन 1690 में अंग्रेज व्यापारियों और मुगल प्रशासकों के मध्य समझौता हुआ और अंग्रेजों ने बंगाल में अपने व्यापार को स्थाई रूप देने का निश्चय किया। 24 अगस्त 1690 को कंपनी के कर्मचारी जॉब चार्नोक ने हुगली के किनारे सुतानाती में पड़ाव डाला। यह पड़ाव ही बाद में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। शीघ्र ही वहाँ एक फैक्ट्री का निर्माण किया गया जो बाद में फोर्ट विलियम के नाम से जानी गई। 1669 में एक स्थानीय सरदार के विद्रोह के समय कंपनी को फैक्ट्री की किलेबंदी का अवसर मिला। 1698 में कंपनी ने औरंगजेब के पौत्र और बंगाल के सूबेदार अजीम से 1195 रुपए वार्षिक लगान पर सुतनाती, कालीकाता और गोविंदपुर गाँवों की जमींदारी के अधिकार खरीद लिए इस क्षेत्र को कोलकाता नाम दिया गया। 1690 में वहाँ प्रेसीडेंसी स्थापित की गई। चार्ल्स को इस का पहला गवर्नर नियुक्त कर उस की परिषद का गठन किया गया।
फोर्ट विलियम 1885
इस समय बंगाल में मुगल पद्धति के अनुसार काजी अपराधिक और दीवानी मामलों का निपटारा किया करते थे। जब कि जमींदारों पर लगान वसूलने की जिम्मेदारी थी। काजी इस्लामी पद्धति से न्याय करते थे, हिन्दुओं के मामले में पंडितों का सहयोग प्राप्त किया जाता था। मूल इकाई के रूप में पंचायतें कायम थीं। काजी के निर्णय के विरुद्ध काजी-ए-सूबा को अपील की जा सकती थी। काजी का पद वंशानुगत होता था जिस के लिए बाद में बोली लगने लगी थी। विधि से अनभिज्ञ लोग न्याय कर रहे थे। भ्रष्टाचार और पक्षपात का बोलबाला था। 1733 में काजी के अधिकार जमींदारों को दे दिए गए। जमीदारों ने भी अपनी स्वार्थ सिद्धि के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। जमींदारों को सभी तरह के न्याय के अधिकार दिए गए थे अपील सूबे के नवाब को की जा सकती थी लेकिन वे इने-गिने मामलों में ही होती थी। जमींदार न्याय के लिए सौदेबाजी करने लगे थे। सामान्य जन लूट के भारी शिकार थे।
न्याय प्रशासन
कोलकाता की जमींदारी खरीद लेने पर उस क्षेत्र में कंपनी को न्यायिक अधिकार भी मिल गए थे। जिस से कंपनी को भारतीयों के मामलों में पूर्ण न्यायिक अधिकार प्राप्त हो गये। पहले बंदियों को विचारण के लिए मद्रास भेजा जाता था। लेकिन 1699 में कोलाकाता में प्रेसीडेंसी कायम हो जाने पर इस क्षेत्र के मामलों के विचारण की व्यवस्था कोलकाता में ही कर दी गई। 1704 में छोटे मामलों की सुनवाई के लिए तीन सदस्यों की एक समिति गठित कर दी गई लेकिन यह अधिक समय तक काम नहीं कर सकी थी।
कलेक्टर न्यायालय
कंपनी द्वारा जमींदार के रूप में अपने एक कर्मचारी को कलेक्टर पदनाम दे कर नियुक्त कर उसे अपराधिक मामलों में निर्णय क