तीसरा खंबा

क्या न्यायपालिका विनायक है?

गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने डॉ. कैलाश काटजू मेमोरियल के वार्षिक व्याख्यान में शनिवार को न्यापालिका के बारे में बहुत अच्छी अच्छी बातें कही हैं लेकिन साथ ही उन्हों ने न्यायपालिका को अति महत्वकांक्षी बताते हुए कहा कि न्याय का मंदिर तनाव में है। उन्होंने यह भी कहा कि सभी समस्याओं का समाधान न्यायालय नहीं कर सकते। मसलन माओवाद, या सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी कई समस्याएं  न्यायालय के आदेश से हल नहीं हो सकती। ऐसी समस्याएं केवल विधायका और कार्यपालिका ही दूर कर सकती है। इस व्याख्यान में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कुलदीप सिंह, पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. वर्मा, प्रख्यात विधिवेत्ता के.के. वेणुगोपाल और समाचार पत्र ‘द हिंदू’ मुख्य सम्पादक एन. राम भी उपस्थित थे और उन्हों ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। 
ह बिलकुल सही है कि न्यायपालिका सभी समस्याओं का हल नहीं है। वह तो केवल समाज में विवादित बिंदुओं पर अपना हल प्रस्तुत करने के लिए है। बाकी काम तो विधायिका और कार्यपालिका को ही करने हैं, इस तथ्य को सारा देश जानता है। फिर भी लोग न्यायपालिका के पास जाते हैं, क्यों? इस प्रश्न का उत्तर उन्हों ने अपने व्याख्यान में प्रस्तुत नहीं किया। लोग न्यायपालिका के पास जाते हैं क्यों कि विधायिका और कार्यपालिका न्यायपूर्ण हल प्रस्तुत नहीं करती। अनेक मामलों में तो वह कोई हल ही प्रस्तुत नहीं करती और लोगों को उस की निद्रा भंग करने के लिए न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है। उन का यह कहना कि न्यायपालिका अतिमहत्वाकांक्षी है, शायद किसी को समझ नहीं आएगा। कोई संवैधानिक संस्था कैसे अतिमहत्वाकांक्षी हो सकती है? कोई व्यक्ति महत्वाकांक्षी हो सकता है और न्यायपालिका कोई व्यक्ति नहीं है।  न्यायपालिका देश की विधायिका और कार्यपालिका में मौजूद लोगों की अतिमहत्वाकांक्षा के आड़े आ सकती है और आती भी है। शायद इसी को चिदम्बरम न्यायपालिका की अतिमहत्वाकांक्षा समझ बैठे हैं।
माओवाद बलपूर्वक वर्तमान व्यवस्था को बदल डालने का विचार एक विचार हो सकता है, कोई समस्या नहीं। समस्या उत्पन्न होती है तब जब वह विधायिका और कार्यपालिका की सामाजिक निष्क्रीयता के कारण जनता के एक हिस्से में जड़ें जमा लेता है और कार्यरूप में परिणत होने लगता है, व्यवस्था को हिंसक प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। लेकिन वह जड़ें जमाता है तो उस में असफलता व्यवस्था की है। इस व्यवस्था में न्यायपालिका भी सम्मिलित है। न्यायपालिका की समस्या यह है कि उस के पास अपनी क्षमता से पाँच गुना काम है। चिदम्बरम जी ने अपने व्याख्यान में एक शब्द भी इस बारे में नहीं कहा कि न्यायिक सुधार का पहला चरण न्यायपालिका के आकार में वृद्धि ही हो सकता है। इस का सारा दारोमदार कार्यपालिका का है। न्यायपालिका के आकार में वृद्धि विधायिका और कार्यपालिका द्वारा उसे आवंटित बजट से ही हो सकती है। लेकिन वे उस के बारे में क्यों विचार करें। उन्हें तो न्यायपालिका एक विनायक दिखायी पड़ती है। विनायक का आकार तो जितना क्षुद्र हो उतना ही अच्छा। 
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