मुझ से तीसरा खंबा के एक नियमित पाठक कमल हिन्दुस्तानी ने सवाल किया है कि …
… क्या पुलिस किसी आदमी को केवल उसके खिलाफ आई एक शिकायत के लिए उसे उसके घर से उठा कर उसके मोहल्ले में से उसे पीटते हुए चौकी में ला सकती है ? और क्या वहाँ पर भी उसे पुलिस के द्वारा पीटा जा सकता है ? जबकि उसके खिलाफ आई शिकायत बेबुनियाद है। वह शिकायत रोजनामचा या एफ़ आई आर में भी दर्ज नहीं है इस पर आप रोशनी डालिए कि पुलिस के अधिकार इस मामले में क्या हैं और एक आम नागरिक के अधिकार क्या है? क्यों कि आज पुलिस अपनी दादागिरी और दूसरी ओर से आई रिश्वत के चलते आम आदमी का शोषण कर रही है।
निश्चित रूप से एक जनतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस का यह व्यवहार उचित नहीं कहा जा सकता। यहाँ तक कि संभावित गंभीर अपराधियों के साथ भी इस व्यवहार को उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसे जनतांत्रिक व्यवस्था में केवल और केवल एक संगठित अपराध ही कहा जा सकता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या पुलिस को ऐसा व्यवहार करने का अधिकार है? निश्चित रूप से पुलिस को जनतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा अधिकार न तो है और न ही दिया जा सकता है। भारत का कोई कानून पुलिस को ऐसा अधिकार नहीं देता है। वस्तुतः यदि यह साबित हो जाए कि किसी पुलिसकर्मी ने किसी के साथ ऐसा व्यवहार किया है तो कानून यह कहता है कि ऐसा पुलिस कर्मी न केवल एक अपराध का दोषी है जिस के लिए उसे दंडित किया जाना चाहिए। इस के साथ ही यह कृत्य सेवा के दौरान किया गया एक दुराचरण भी है जिस के लिए दोषी सिद्ध होने पर पुलिसकर्मी को सेवाच्युति का ही दंड दिया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है और होता भी है तो किसी किसी बिरले मामले में। वह भी केवल व्यवस्था को पाक-साफ प्रदर्शित करने के लिए।
इस के बावजूद यह सब चल रहा है और सब के जानते हुए चल रहा है। देश के विधायक, सांसद, मंत्री, अधिकारी, न्यायाधीश और जनता सब जानते हैं कि ऐसा हो रहा है लेकिन कोई भी इसे नहीं रोक पा रहा है। सामान्य रुप से रोजमर्रा होने वाले इस अत्याचार की समाप्ति के लिए कहीं भी कुछ गंभीरता से नहीं किया जा रहा है। यह व्यवस्था का दोष है। वास्तव में हमारी व्यवस्था जितना उसे जनतांत्रिक बताया जाता है उस की लेश मात्र भी जनतांत्रिक नहीं है। वह लगभग उसी नक़्शे कदम पर चल रही है जिस पर ब्रिटिश भारत की व्यवस्था चल रही थी।
वास्तव में ऐसा होने के पीछे अनेक कारण हैं। उन में मुख्य कारण हमारे पिछड़े हुए कानून और अक्षम न्याय व्यवस्था है। मैं ने ऊपर यह कहा था कि यदि साबित हो जाए तो ऐसा कृत्य अपराध है जिस के साबित होने पर दंडित किया जा सकता है और सेवा के दौरान किया गया दुराचरण है जिस के साबित होने पर पुलिसकर्मी को सेवाच्युति का दंड दिया जाना चाहिए। दोनों ही मामलों में सारा जोर इस बात पर है कि अपराध या दुराचरण साबित होना चाहिए। पुलिस जो रोज दंड व्यवस्था की रीढ़ है वह अच्छी तरह जानती है कि किस तरह उन के इस कृत्य को साबित होने से बचा जा सकता है। यही कारण है कि वह यह अपराध इस तरीके से करती है कि उसे साबित नहीं किया जा सके। मसलन वह पिटाई इस तरह करती है कि कोई जाहिरा चोट नहीं होती। यदि पिटने वाले व्यक्ति का चिकित्सकीय मुआयना किया जाए तो पुलिस और इस तरह का मुआयना करने वाले चिकित्सक आपस में इस तरह मिले होते हैं कि चिकित्सकीय रिपोर्ट सजा दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं होती। दूसतरी ओर सफेदपोश चिकित्सक भी पुलिस से डरता है। वह जानता है कि उस की किसी रिपोर्ट पर कोई पुलिसकर्मी दंडित हुआ तो पुलिस उसे कभी भी रगड़ सकती है। भला इसी में है कि पुलिस के इन कामों को ढका छुपा ही रहने दिया जाए। पुलिस को इतने अधिकार हैं कि वह किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है, यह कहते हुए कि उस के विरुद्ध संज्ञेय अपराध का मामला बनता है। पुलिस के इस अधिकार से न हर कोई सफेदपोश डरता है और इस भय से वह अपने कर्तव्य से मुहँ मोड़ते हुए पुलिस के दुष्कर्मों का साथ देता रहता है।
यह भी सही है कि पुलिस के इन दुष्कृत्यों और अपराधों के लिए सीधे न्यायालय में दस्तक दी जा सकती है। लेकिन न्यायालयों की इतनी कमी है कि वे पुलिस द्वारा पेश किए गए मामलों से ही नहीं निपट पाते। न्यायालय निजि शिकायतों पर बहुत कम ही निर्णय लेते हैं। दूसरी ओर न्यायालय के समक्ष शिकायत करने वाले व्यक्ति को जटिल न्याय प्रक्रिया में इतना उलझा दिया जाता है कि यदि कोई शिकायत कर भी दे तो वह कुछ ही दिनों में ऐसी शिकायत से तौबा कर लेता है। ऐसी कोई शिकायत कर देने पर पुलिस भी किसी न किसी तरह इस तरह की शिकायत करने वाले को और उस के गवाहों को कहीं न कहीं इस बुरी तरह उलझा देती है कि वे तौबा कर लें। यदि किसी तरह शिकायत कर्ताकिसी तरह अधीनस्थ न्यायालय से किसी पुलिस वाले को सजा दिलाने में सक्षम हो भी जाए तो भी अपील दर अपील का ऐसा सिलसिला आरंभ हो जाता है और उस में इतना समय लग जाता है कि शिकायतकर्ता या तो दुनिया छोड़ देता है या फिर थक हार कर घऱ बैठ लेता है। इस तरह के कुछ मामलों में पुलिसकर्मियों को सजा हुई भी है तो उस के पीछे मीडिया की जबर्दस्त ताकत रही है।
कुल मिला कर पुलिस द्वारा किेए जा रहे इन संगठित अपराधों को तभी रोका जा सकता है जब कि व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन लाए जाएँ। जिस के लिए कोई अभी तैयार नहीं है। मौजूदा व्यवस्था मौजूदा शासक वर्ग (पूंजीपतियों, संपत्तिवानों और उन के प्रतिनिधि राजनेताओं को रास आती है। यह जनता के विरुद्ध है। लेकिन जनता अभी उतनी संगठित नहीं कि इन संगठित अपराधों के खिलाफ देश भर में आंदोलन खड़ा कर सके। एक जबर्दस्त जनान्दोलन ही इस व्यवस्था को बदल सकता है।