धारा 138 कहती है कि यदि कोई व्यक्ति किसी “कर्जे की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहन” के लिए किसी को चैक देता है, और वह चैक यदि खाते में धन की कमी या व्यवस्था न होने के कारण बिना भुगतान के वापस लौटा दिया जाता है तो यह माना जाएगा कि चैक प्रदाता ने अपराध किया है जो दो वर्ष के कारावास या चैक की राशि से दुगनी राशि तक के जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकेगा; लेकिन तभी जब कि चैक जारी होने की तिथि के छह माह की अथवा चैक की वैधता की इस से कम अवधि में बैंक में प्रस्तुत किया गया हो, चैक धारक ने चैक प्रदाता को चैक बाउंस होने की सूचना प्राप्त होने के 30 दिनों में चैक की राशि का भुगतान करने के लिए लिखित में सूचित किया हो और ऐसी सूचना मिलने के 15 दिनों के भीतर चैक प्रदाता ने चैक की राशि का भुगतान नहीं किया हो।
यहाँ “कर्जे की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहन” का अर्थ ऐसा दायित्व है, जो कानून द्वारा लागू किए जाने योग्य है।
लेकिन धारा 139 में यह भी लिखा गया है कि “जब तक इस के विपरीत प्रमाणित न कर दिया जाए तब तक यह माना जाएगा कि चैक “कर्जे की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहन” के लिए ही दिया गया था।
यहाँ यह साबित करने का दायित्व कि चैक “कर्जे की अदायगी या अन्य किसी दायित्व के निर्वहन” के लिए था, तथ्यों को साबित करने के सामान्य सिद्धान्त के विपरीत चैक प्रदाता पर डाल दिया गया है।
इस तरह के मामलों में अपराध साबित करना बहुत ही आसान है इस के लिए परिवादी चैक धारक को केवल चैक, चैक को बैंक में प्रस्तुत करने की रसीद, बैंक से चैक के बाउंस होने की सूचना, चैक की राशि को अदा करने के लिए दी गई सूचना की प्रति और उस की रसीद को अदालत में प्रस्तुत करने और चैक धारक का खुद का उक्त दस्तावेजों को प्रमाणित करते हुए बयान रिकॉर्ड कराना मात्र पर्याप्त है।
इस प्रचलन से कर्जा और धन वसूलने वालों की चांदी हो गई। उन्हों ने धन वसूली का दीवानी मुकदमे का मार्ग त्याग दिया और हर कोई धारा 138 के अंतर्गत फौजदारी मुकदमे का सहारा लेने लगा। नतीजा जो हुआ वह मैं पिछली कड़ी में बता चुका हूँ कि फौजदारी अदालतें इस तरह के मुकदमों से पट गईं। दिल्ली की फौजदारी अदालतों में तो 56 प्रतिशत से अधिक फौजदारी मुकदमें इसी अपराध के लंबित हैं।