तीसरा खंबा

क्या रुक पाएगी चैक बाउंस के मुकदमों की बाढ़?

1988 में जब परक्राम्य विलेख अधिनियम, 1881 में अध्याय 17 (धारा 138 से 147 तक) को जोड़ा गया था तब यह सोचा भी नहीं गया था कि यह अध्याय भारत में लेन-देन के लिए इतना परिवर्तनकारी साबित होगा कि न्यायपालिका की न्याय पालिका की गतिविधि को अवरुद्ध कर देगा।  आज दिल्ली की अदालतों में लंबित तमाम फौजदारी मुकदमों का 56% से अधिक केवल इसी अध्याय के अंतर्गत दायर की गई शिकायतों से उत्पन्न हुए हैं।  आज चैक बाउंस होने पर चैक धारक द्वारा नोटिस दिए जाने के बाद निर्धारित अवधि मे चैक की रकम नहीं चुकाना सब से बड़ा अपराध भारत में सब से अधिक होने वाला अपराध हो बन चुका है। ऐसा क्यों हुआ? वह एक अलग विषय है। अभी हम इस अपराध की जीवन यात्रा देखेंगे।

बैंको और वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले ऋणों की अदायगी सुरक्षित करने के लिए इस कानून का निर्माण हुआ था। लेकिन इस का लाभ उठाने का सर्वाधिक अवसर उन लोगों को मिला जो कानून से प्रतिबंधित मनमाने ब्याज पर धन उधार देने का व्यवसाय करते हैं। ऐसे लोग यदि ऋण की सुरक्षा के लिए खाली या भरे हुए चैक प्राप्त कर लें और वसूली के लिए इस अध्याय का उपयोग करें तो उन्हें किसी तरह भी नहीं रोका जा सकता। दूसरी ओर वस्तुएँ और सेवाएँ विक्रय करने वाले संस्थानों द्वारा भी इस अध्याय का इसी तरह उपयोग किया जा सकता था। नतीजा यह हुआ कि लोग चैक को रकम वापसी के लिए सुरक्षा मानते हुए धड़ल्ले से ब्याजखोरी और वस्तुएँ व सेवाएँ विक्रय करने के व्यवसाय मे उतर गए। जरूरतमंद उन के उपभोक्ता बने। देश की आर्थिक हालात और बेरोजगारी का प्रतिशत देखते हुए रकम चुकाने में परेशानियाँ आने लगी तो चैक धारकों ने धड़ल्ले से अदालतों में ये मुकदमे करना आरंभ कर दिया। अदालतों ने भी इस तरह के मुकदमों में चैक की राशि से दुगनी राशि तक प्रतिकर के रूप में चैक धारकों को दिलाना आरंभ कर दिया। जिस से प्रोत्साहित हो कर अदालतों के सामने उस अध्याय के अंतर्गत आने वाले मुकदमों से
अदालतें पटने लगीं। अदालतों में ट्रेफिक जाम हो गया।
 

पिछले साल जब एक ही दिन में एक ही शिकायतकर्ता ने एक ही अदालत में 73000 शिकायतें दर्ज कराई तो न्यायपालिका की आँखें खुली। देश के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कानून के मुताबिक मुकदमे दर्ज तो उन्हें करने होंगे। फिर कहा कि अदालतों को वसूली एजेण्ट नहीं बनने दिया जाएगा।  लेकिन ब्याजखोरी और वस्तुएँ व सेवाएँ विक्रय करने के व्यवसाइयों पर इस का कोई असर नहीं हुआ. मुकदमे लगते गए और अपराधिक अदालतों की गतिविधियाँ बहुत धीमी हो गईं।

आखिर न्यायपालिका किस तरह से इस का कोई हल निकाल सकती थी? लेकिन ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका के पास इस के लिए कोई मार्ग ही नहीं रहा हो। अभी हाल ही में कुछ न्यायालयों ने जिस तरह के निर्णय इन मामलों में देना आरंभ किया है उस से लगता है कि न्यायपालिका एक हद तक इन मामलों की बाढ़ को रोकने में कामयाब हो सकती है।

  (जारी)                                                                                                .
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