पिछली बार सहमति (Consent) से हमारा परिचय हो चुका था, कि जब भी दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी बात पर एक जैसे अर्थों में सहमत हो जाएँ तो उसे सहमति कहा जाएगा।
स्वतंत्र सहमति
किसी भी कंट्रेक्ट के लिए स्वतंत्र सहमति का होना आवश्यक है। स्वतंत्र सहमति के लिए इसे पाँच कारकों के बिना होना चाहिए। ये पाँच कारक- 1. जबरद्स्ती, 2. अनुचित प्रभाव 3. धोखाधड़ी 4. मिथ्या निरूपण 5. त्रुटि हैं।
इन पांच कारकों से उत्पन्न सहमति, सहमति नहीं होगी। (धारा-14)
इन पाँचों कारकों के भी ढेरों अर्थ हो सकते हैं। इस कारण इन्हें भारतीय कंट्रेक्ट कानून में परिभाषित भी किया गया है।
1.जबरदस्ती (Coercion)
किसी व्यक्ति को किसी समझौते में शामिल करने के उद्देश्य से, भारतीय दंड संहिता द्वारा निषिद्ध किसी भी कृत्य को करना, या उसे करने की धमकी देना, या पूर्वाग्रह के साथ अवैध रूप से किसी व्यक्ति की संपत्ति को रोके रखना, या रोकने की धमकी देना जबरदस्ती कहा जाएगा।
यहाँ कानूनी स्पष्टीकरण है कि, यह जरूरी नहीं कि जहाँ जबर्दस्ती की गई हो वहाँ भारतीय दंड संहिता लागू है या नहीं। जैसे……
….. बीच समुद्र में, ब्रितानी जहाज पर यात्रा करते हुए अ व्यक्ति ब व्यक्ति को उस के, या उस से हितबद्ध किसी व्यक्ति के शरीर, या उस की ख्याति, या सम्पत्ति को हानि पहुँचाने की धमकी दे कर, अर्थात भारतीय दंड संहिता में परिभाषित अपराधिक अभित्रास के जरिए किसी समझौते में शामिल करता है।
…..बाद में अ व्यक्ति कलकत्ता में कंट्रेक्ट को भंग करने का मुकदमा करता है।
……यहाँ अंग्रेजी कानून के तहत अ का कृत्य अपराध न होते हुए भी भारतीय दंड संहिता की धारा 504 के अन्तर्गत अपराध होने के कारण जबर्दस्ती से किया गया कंट्रेक्ट माना जाएगा।
भारतीय कंट्रेक्ट कानून अंग्रेजी विधि पर आधारित है, लेकिन अंग्रेजी कानून में ‘जबरदस्ती’ (Coercion) के स्थान पर ‘दबाव’ (Duress) शब्द का प्रयोग किया गया है, जो ‘जबरदस्ती’ (Coercion) से कम विस्तृत है। लेकिन भारतीय परिस्थितियों में इस का विस्तृत होना जरूरी भी था। भारतीय दंड संहिता में जितने भी कृत्य या अकृत्य अपराध हैं या वर्जित हैं, उन के माध्यम से ली गई सहमति को जबरदस्ती ली गई सहमति कहा जाएगा और उस के कारण हुआ कंट्रेक्ट शून्यकरणीय होगा।
इस सम्बन्ध में मेरा खुद का एक केस मुझे स्मरण हो रहा है। कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 में ढाई हजार कर्मचारियों की छंटनी कर दी गई थी। छंटनी का मुकदमा चल रहा था। लोग जो बेरोजगार हुए थे वे नए रोजगार की तलाश में थे। उन में एक महिला लिपिक मीनाक्षी ने नए रोजगार की तलाश में एक स्थान पर साक्षात्कार दिया। वहाँ उस से यह मांग की गई कि वह पूर्व नियोजक का सेवा प्रमाणपत्र प्रस्तुत करे। वह जे.के. सिन्थेटिक्स लि. को प्रबंधकों के पास पहुँची, तो उसे कहा गया कि वह त्यागपत्र दे दे, तो उसे प्रमाण पत्र दिया जा सकता है। उस ने बहुत मिन्नतें की। लेकिन उसे बिना त्याग पत्र दिए बिना सेवा प्रमाण पत्र देने से प्रबंधन ने इन्कार कर दिया। उस ने समय मांगा। पुरानी नौकरी का कुछ भरोसा नहीं था। अन्ततः उस ने त्याग पत्र दे कर सेवा प्रमाण पत्र प्राप्त किया। नयी नौकरी भी इस बीच किसी दूसरे को दे दी गई। वह बेरोजगार रह गई।
मीनाक्षी ने अपना मुकदमा किया। बीच मुकदमे में उस के वकील ने उसे कहा कि उस के मुकदमा हारने के अधिक अवसर हैं। वह मुकदमा मेरे पास ले कर आयी। पूर्व वकील ने उसे प्रसन्नता पूर्वक मुकदमें के कागजात दे दिए। मैं पूरी तरह आश्वस्त तो न था, लेकिन उसे ढाढ़स बंधाया। त्याग पत्र से सेवा समाप्ति एक स्वतंत्र कंट्रेक्ट होता है, और त्याग पत्र की सहमति सेवा प्रमाण पत्र रोक कर दी गई थी, जिसे कानून मूल्यवान संपत्ति मा
नता है। इस आधार पर यह सहमति जबरदस्ती ली गई सहमति थी।
जबरन सहमति को साबित करने की जिम्मेदारी हमारी थी। हम ने साक्ष्य में केवल मीनाक्षी के बयान कराए। बयान कराने के दिन वह बीमार थी। दूसरे दिन आ कर रोने लगी कि मैं ने सब सवालों के गलत-सलत जवाब दे दिए, अब क्या होगा? मैं ने उसे फिर ढाढस बंधाया। मैं जानता था अब कुछ नहीं होने का। जो बयान रिकार्ड हो गए उन्हीं से काम चलाना है।
मुकदमा बहस में आया तो कंपनी के वकील बुजुर्ग थे और अपने काम में महारत हासिल किये हुए। बहस के पहले ही मुझ से पूछा -तुम्हारे हिसाब से मुकदमे का भविष्य क्या होगा? मै ने उलट कर पूछा -आप बताएँ? वे कहने लगे -100% हमारे हक में; मीनाक्षी मायूस हो गई। इतने में अदालत से बुलावा आ गया। जबरन ली गई सहमति सिद्ध करने में मैं कामयाब रहा था? मैं ने बाहर आते ही फिर से कंपनी के वकील साहब से पूछा -अब क्या राय है? कहने लगे -50-50%; मैं ने कहा -तब हम मुकदमा जीत गए।
फैसला हमारे हक में हुआ। कंपनी उच्च-न्यायालय चली गई। वहाँ से अभी तीन माह पहले निर्णय हुआ है। कंपनी की अपील खारिज हो गई, और फैसला मीनाक्षी के हक में रहा। (धारा-15)