तीसरा खंबा

जमानती और मूल ऋणी की जिम्मेदारी एक जैसी है।

गत आलेख में मैं ने गारंटी की कॉन्ट्रेक्ट की चर्चा की थी। अधिकांश साधारण व्यक्तियों को इस तरह के कॉन्ट्रेक्ट की कानूनी पेचीदगियों की जानकारी नहीं होती, और वे अक्सर मुसीबत में फंस जाते हैं। किसी भी व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति की गारंटी देने के पहले यह जानना जरूरी है कि यह “गारंटी का कॉन्ट्रेक्ट” क्या है?

गारंटी के कॉन्ट्रेक्ट में जमानती इस बात की गारंटी देता है कि अगर मूल-ऋणी ने लेनदार से किए गए वादे को या जिम्मेदारी को निभाया तो जमानती उसे निभाएगा। यहाँ गारंटी देने वाले को ‘जमानती’ और जिस के वादा न निभाने पर इस कॉन्ट्रेक्ट को लागू होना है, उसे ‘मूल-ऋणी’ कहा जाता है।

कॉन्ट्रेक्ट में जमानती और मूल-ऋणी की जिम्मेदारियाँ एक समान होती हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जमानती प्रवेश दृश्य में तभी होता है जब मूल-ऋणी वादा नहीं निभाता है और डिफाल्ट कर देता है। अनेक बार लेनदार ऋण देते समय मूल-ऋणी से कोलेट्रल सीक्योरिटी (संपार्श्विक प्रतिभूति) के रूप में किसी अचल संपत्ति के स्वामित्व के दस्तावेज अपने पास जमा कर रहन रख लेता है। ऐसी स्थिति में जमानती यह समझता है कि उस पर जो भी जिम्मेदारी आएगी वह तभी आएगी जब कि कोलेट्रल सीक्योरिटी के रूप में रहन की गई संपत्ति से भी वसूल न हो सके। परन्तु यह धारणा गलत है। अगर लेनदार यह समझता है कि कोलेट्रल सीक्योरिटी को हाथ लगाए बिना ही जमानती से अपना पैसा वसूला जा सकता है, तो वह आम तौर पर पहले जमानती पर ही हाथ डालता है।

बैंकों और वित्तीय संस्थानों के ऋणों के मामलों में जब तक एक दो नोटिस आने तक तो जमानती को असर ही नहीं होता। वह केवल मूल-ऋणी को याद भर दिला कर रह जाता है। जब कि एक भी किस्त चूकने पर ही जमानती के साथ हुआ कॉन्ट्रेक्ट ऑपरेशन में आ जाता है। ऐसे में पहला नोटिस ही खतरे की घंटी होता है। उसी समय जमानती को हरकत में आ जाना चाहिए और प्रयास करना चाहिए कि जितना शीघ्र हो सके मूल-ऋणी संपूर्ण ऋण लेनदार को चुका दे।

आज कल जमानती अपनी सुरक्षा के लिए एक काम और कर सकता है। वह यह कि कम से कम कुछ ब्लेंक या ऋण और ब्याज की पूर्ती करने लायक अग्रिम चैक मूल-ऋणी से हस्ताक्षर करवा कर अपने पास जरूर रखे। जिस से मूल-ऋणी को भी यह अहसास रहे कि जमानती उस का कुछ बिगाड़ भी सकता है, और इतना कि उस ने दायित्व पूरा नहीं किया तो उसे बड़े घर (जेल) की हवा का लाभ तो प्रदान करवा ही सकता है।

आम तौर पर जब जमानती गारंटी के कॉन्ट्रेक्ट (डीड ऑफ गारंटी) पर हस्ताकक्षर करता है तो पूरी तरह से विश्वास के अंधेरे में रह कर ही हस्ताक्षर कर देता है। जमानती को न तो यह पता रहता है कि उस ने किस तरह की गारंटी दी है? और न ही यह कि गारंटी के कॉन्ट्रेक्ट में वास्तव में क्या क्या लिखा है? जब कि होना तो यह चाहिए कि गारंटी के कॉन्ट्रेक्ट को पूरा पढ़ना ही नहीं चाहिए, उसे ठीक से समझ भी लेना चाहिए। अगर वह खुद समझने में सक्षम नहीं हो तो उसे किसी जानकार व्यक्ति या किसी वकील की मदद से समझ लेना चाहिए। जमानती को गारंटी के कॉन्ट्रेक्ट की एक प्रति अपने पास जरुर सुरक्षित रखना चाहिए जिस से उस के विरुद्ध मुकदमा होने पर वह अपना प्रतिवाद रख सके।

जमानती पर मुकदमा होने या वसूली की स्थिति आ जाने पर बचाव के भी कुछ मार्ग हैं। मगर उन का उल्लेख आगे किसी आलेख में।

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