हमारी अदालतों की हालत का इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि दिल्ली हाईकोर्ट में वर्तमान में इतने मुकदमें लंबित हैं कि जितने जज इस समय न्यायालय में नियुक्त हैं उन्हें उन सब का निर्णय करने में 466 वर्ष लग जाएंगे। यह बात किसी और ने नहीं दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.पी. शाह ने कही है।
दिल्ली हाईकोर्ट को एक मुकदमे का निर्णय करने में औसतन चार मिनट पचपन सैकण्ड का समय लगता है। लेकिन इस समय यहाँ दसियों हजार मुकदमे लम्बित हैं, जिनमें से 600 मुकदमे तो बीस वर्ष से भी अधिक पुराने हैं। दिल्ली हाईकोर्ट दीवानी, फौजदारी, संवैधानिक और अन्य प्रकार के मामलों की सुनवाई करता है और उस के द्वारा मुकदमों को निपटाए जाने की दर सब से तेज है।
दिल्ली हाईकोर्ट की इस स्थिति पर चर्चा करने पर दिल्ली के जाने माने वकील प्रशान्त भूषण कहते हैं कि देश में न्याय व्यवस्था पूरी तरह ढहने के कगार पर खड़ी है। देश के लोग केवल इस भ्रम में जी रहे हैं कि यहाँ कोई न्याय प्रणाली है।
मुकदमों में देरी का प्रधान कारण यह है कि न्यायालयों में सुनवाई करने वाले न्यायाधीशों की संख्या बहुत न्यून है। भारत में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर केवल 11 न्यायाधीश हैं। जब कि संयुक्त राज्य अमरीका में इतनी ही आबादी के लिए 110 न्यायाधीश उपलब्ध हैं। भारतीय न्याय मंत्रालय ने पिछले साल खुद यह स्वीकार किया कि दस लाख की आबादी पर कम से कम 50 न्यायाधीश तो होने ही चाहिए, और यह लक्ष्य 2013 कर हासिल कर लिया जाना चाहिए। लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार इन सब के लिए अर्थ की क्या व्यवस्था करने जा रही है।
अभी तक तो हालात यह हैं कि न्यायालयों में जितने न्यायाधीशों के स्थान स्वीकृत हैं उतने न्यायाधीश नियुक्त ही नहीं हैं। 2007-2008 में दिल्ली हाईकोर्ट में 48 न्यायाधीशों के स्थान पर केवल मात्र 32 जज नियुक्त थे।