तीसरा खंबा

धर्मशास्त्र और स्मृतियाँ : भारत में विधि का इतिहास-4

(401वीं पोस्ट)

वेदोत्तर काल

1000 ईस्वी पूर्व तक वैदिक साहित्य रचा गया और तदनुसार विधियों का प्रचलन रहा। तब तक भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था मौजूद थी। इस बीच एक स्तर तक खेती का विकास हो चुका था और वह पशुपालन के स्थान पर अर्थव्यवस्था की धुरी बनने को आतुर थी। गणतंत्रों की व्यवस्था खेती के विकास में अवरोध बन रही थी। क्यों कि अब खेती योग्य भूमि पर अधिकार, कृषि संबंधी व कृषि के कारण बढ़ रही संपत्ति की सुरक्षा संबंधी अपराधों की रोकथाम व अपराधियों को दंड, कृषिकर्म पर कराधान की नई व्यवस्था और उत्तराधिकार की सुस्पष्ट विधियों की आवश्यकता हो रही थी। इस कारण गणतंत्र कमजोर हो कर विच्छिन्न हो रहे थे। अब एक अधिक मजबूत राज्य की भी आवश्यकता थी। बुद्ध के जीवनकाल के उपरांत इस आवश्यकता के अधीन ही राज्य उदय हुए और साम्राज्य भी। चंद्रगुप्त मौर्य को भारत का पहला सम्राट बनने प्राप्त हुआ। इस बीच विधि के विकास की भूमिका धर्मसूत्रों और स्मृतियों ने अदा की।
गौतम
धर्मसूत्र
र्मसूत्र कहे जाने वाले ग्रंथों की रचना 800 ईस्वी पूर्व से 300 ईस्वी पूर्व के काल में हुई। इन में गौतम धर्मसूत्र, बोधायन धर्मसूत्र, आपस्तंभ धर्मसूत्र, वशिष्ट धर्मसूत्र, विष्णु धर्मसूत्र, हारित धर्मसूत्र, हिरण्यकेशि धर्मसूत्र और शंख धर्मसूत्र उल्लेखनीय हैं। लेकिन विधि के रूप में माने जाने के लिए इन में से प्रथम चार ही प्रधान रहे। धर्मसूत्रों में धार्मिक, सामाजिक व्यवहार और विधिक निषेधों की की व्याख्या छोटे-छोटे सूत्रों या वाक्यों के द्वारा की गई है। ये सामाजिक परंपराओं, रूढ़ियों और उन पर आधारित दीवानी और दंड विधि के निर्देश हैं। धर्मसूत्रों में पहली बार एक सुस्पष्ट विधिक व्यवस्था के संकेत प्राप्त होते हैं। इन धर्मसूत्रों में विवाह,  पुत्रत्व,  दत्तक ग्रहण, उत्तराधिकार, राजा के कर्तव्यों, संपत्ति विभाजन, स्त्री-धन, ऋण, हमला, चोरी, हत्या, बलात्संग,  व्यभिचार, यौन अपराध, भरण-पोषण, अपराध,  प्रायश्चित साक्ष्य और प्रमाण आदि के संबंध में विवेचन प्राप्त होता है। इस के साथ ही इन में कृषकों, व्यापारियों, पशुपालकों, भू-स्वामियों, और शिल्पियों के रीति रिवाजों को महत्व दिया गया है।
स्मृतियाँ
विधि और न्याय प्रशासन के विकास में समृतियों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। ये मूलतः विधि संहिताएँ तो नहीं हैं लेकिन हिन्दू विधि का प्रत्यक्ष स्रोत रही हैं। इन ग्रंथों में सर्वप्रथम विधि नियमों की सुस्पष्ट और क्रमबद्ध विवेचना की गई है। इसी कारण से स्मृति काल को हिन्दू विधि का स्वर्ण काल कहा जाता है। समृतियों में मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, बृहस्पति, कात्यायन की स्मृतियाँ मुख्य हैं। स्मृतियों का रचना काल  300 ईस्वी पूर्व से ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी तक का है। इन में मनुस्मृति का प्रमुख स्थान है।
नुस्मृति – इस का रचना काल 200 ईस्वी पूर्व है इस में वेद सम्मत धर्मनीति और प्राचीन परम्पराओं को ही विधि के रूप में स्वीकृति दी गई है। इस में 12 अध्याय और 2694 श्लोक हैं, जिन में विवाह, पुत्रत्व, दायभाग, स्त्री-धन, संपत्ति, सीमा विवाद, संविदा, भागीदारी, स्वामी