न्यायमूर्ति गौडा ने न्यायाधीशों और वकीलों से आग्रह किया कि वे तकनीकी चीजों में उलझने के स्थान पर लोगों के जल्दी न्याय प्रदान करने में अपना योगदान करें। लेकिन उन्हों ने केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रति एक शब्द भी कहना उचित नहीं समझा। जब कि वास्तविकता यह है कि देश में न्यायाधीशों की संख्या देश की आबादी और लंबित मुकदमों के अनुपात में बहुत कम है। इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जहाँ अमरीका में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर 111 न्यायाधीश नियुक्त हैं वहीं भारत मे इन की संख्या केवल 11 है। इस तरह हम अमरीका के मुकाबले केवल दस प्रतिशत न्यायाधीशों से काम चला रहे हैं।
हर बार बात की जाती है कि मुकदमों के निपटारे की गति बढ़ानी चाहिए। लेकिन बिना न्यायाधीशों और न्यायालयों की संख्या में वृद्धि किए यह किसी प्रकार से संभव नहीं है। एक मुकदमे में सुनवाई सिर्फ न्यायाधीश कर सकता है। इस के लिए उसे पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जिस में समय लगना स्वाभाविक है। गवाहों के बयान दर्ज करने की गति को तो किसी प्रकार से नहीं बढ़ाया जा सकता है। इस तरह मुकदमों के निपटारे के लिए सारा दबाव न्यायाधीशों और वकीलों पर बनाया जाता है और उस के खराब नतीजे सामने आ रहे हैं। हड़बड़ी में मुकदमों के निर्णय किए जाते हैं जो गलत होते हैं और उन से हमारी न्याय व्यवस्था की साख गिरती है।
वर्तमान में राज्य सरकारों का काम करने का तरीका यह हो चला है कि वे वही काम करती हैं जिस से जनता को अगले आम चुनाव में यह दिखाया जा सके कि उन्हों ने जनता के लिए कितना काम किया है। न्यायालयों की स्थापना और शीघ्र न्याय प्रदान करने की मांग अभी जनता की ओर से राजनैतिक मांग नहीं बन पायी है जिस के कारण राज्य सरकारें इस ओर से पूरी तरह उदासीन रहती हैं। अधिकांश राज्य सरकारों का तो यह सोचना हो गया है कि न्याय प्रदान करने की जिम्मेदारी उन की है ही नहीं। ऐसी स्थिति में इस बात की कोई संभावना नहीं है कि निकट भविष्य में देश की जनता को शीघ्र न्याय प्राप्त होगा। स्थिति में कोई सुधार होने के स्थान पर आने वाले सालों में न्याय व्यवस्था और खराब होती चली जाएगी। न्यायार्थियों को न केवल और देरी से न्याय मिलेगा अपितु निर्णयों की गुणवत्ता भी इस के साथ ही गिरती चली जाएगी।