तीसरा खंबा के विगत आलेख कंट्रेक्ट को निरस्त करने की न्यायालय की शक्ति पर भाई नीरज जी रोहिल्ला ने अपनी टिप्पणी में एक गंभीर प्रश्न किया था…..
“इंजीनियरिंग कालेजों में कैम्पस सेलेक्शन के समय अधिकतर/सभी कंपनियां अनुबंध करती हैं कि 1 अथवा 1 साल तक हमारे साथ काम करना पडेगा, और अगर नौकरी छोडी तो 50,000.00 से 1 लाख तक की रकम भरनी होगी। क्या ये एक उचित अनुबंध है? क्योंकि ये सब बातें इंटरव्यू के बाद नियुक्ति पत्र के साथ बतायी जाती हैं। क्या इस प्रकार के मामलों में इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है?”
भाई अभिषेक ओझा जी ने टिप्पणी के इस प्रश्न को आगे बढ़ाया…..
“नीरज जी का सवाल उपयोगी है… पर मेरे हिसाब से तो कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि ये दोनों पक्षों की सहमती से होता है… कांट्रेक्ट पर हस्ताक्षर करते वक्त कंपनी कोई दवाब नहीं डालती ना ही मिथ्या निरूपण होता है… छात्र स्वतंत्र होते हैं कांट्रेक्ट पर साइन करने या न करने को।”
इस पर भाई विष्णु बैरागी जी ने बात को आगे बढ़ाया…..
“नीरजजी की बात को थोडा आगे बढा रहा हूं। मेरे बेटे को टीसीएस ने केम्पस के जरिए चुना था। नियुक्ति पत्र में वही शर्त थी जो नीरजजी ने बताई है। उसमें मेरे बेटे से 50 हजार रूपयों की बैंक गारण्टी फिर पिता का जमानतनामा मांगा गया था। मुझे भी अटपटा लगा था लेकिन मैं ने जमातनामा भरा।”
सेवा-बंधपत्र से संबंधित इस प्रश्न को जब गूगल खोज में डाला गया तो वहाँ भी प्रश्न ही प्रश्न दिखाई दिए, तो लगा कि प्रश्न अत्यन्त महत्व का है। उत्तर भी वहाँ थे, लेकिन कानूनी दृष्टिकोण से दिया गया एक भी नहीं। उत्तर भी या तो भुक्तभोगियों की ओर से दिए गए थे, या फिर उन का दृष्टिकोण प्रबंधकीय था। जिन में समझाने का प्रयत्न किया गया था कि जो नियोजक एक सद्यस्नातक या स्नातकोत्तर विद्यार्थी को अध्ययन समाप्ति पर नौकरी प्रदान करने का अनुबंध करता है, वह उस नए नियोजिति को अपने संस्थान में महत्वपूर्ण प्रशिक्षण भी प्रदान करता है, या फिर किसी अन्य संस्थान में प्रशिक्षण हेतु भेजता है। इन दोनों कामों में वह अपना धन निवेश करता है। यदि कोई नियोजिति अल्पकाल में ही नियोजन त्याग दे, तो नियोजक को उस के द्वारा इस प्रकार निवेशित धन की हानि उठानी पड़ती है। इसी कारण से नियोजिति को वह एक बंध-पत्र और अक्सर ही नियोजिति के संरक्षक की गारंटी द्वारा एक, दो या तीन, या उस से अधिक वर्षों के लिए बांध कर रखता है। ये बंध-पत्र और गारंटी नियोजक को उस के द्वारा निवेशित पूँजी और उस के लाभ की पुनर्प्राप्ति को सुनिश्चित करती हैं।
इन उत्तरों से ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी व्यक्ति को नियोजन देने के समय किया गया बंध-पत्र और गारंटी एक पवित्र बंधन है जिस की पालना प्रत्येक नियोजिति को करनी चाहिए। लेकिन अंतरजाल पर उपलब्ध उत्तरों में कहीं भी कानूनी व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं किया गया था। मैं यहाँ अपनी सामर्थ्य से इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ……
नियोजन आरंभ के समय निष्पादित बंध-पत्र और गारंटी कानूनी रूप से एक अनुबंध ही है। यदि यह अनुबंध कानून की शर्तों को पूरा करता हो और कानून के द्वारा लागू कराया जा सकता हो, तो ही वह एक कंट्रेक्ट का रूप लेता है, और कंट्रेक्ट होने पर ही उसे कानून द्वारा लागू कराया जा सकता है। कंट्रेक्ट होने पर भी वह एक शून्यकरणीय या शून्य कंट्रेक्ट हो सकता है। कंट्रेक्ट कानून पर चल रही इस श्रंखला में अब तक इस कानून की जितनी विवेचना की गई है वह केवल कंट्रेक्ट कानून का 1/12 वाँ हिस्सा ही है और 11/12 हिस्से की विवेचना किया जाना शेष है। इस से आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह कानून कितना विषद् और अहम् है।
इस प्रकार नियोजन आरंभ के समय निष्पादित बंध-पत्र और गारंटी का अनुबंध भी तभी लागू कराया जा सकता है जब कि वह कंट्रेक्ट कानून के अनुरूप खरा उतरे, कानून के अनुसार उसे कतिपय स्थितियों में भंग भी किया जा सकता है। यदि कोई नियोजिति इस बंध-पत्र में निश्चित की गई अवधि के पूर्व अपना नियोजन त्याग कर उस बंध-पत्र को भंग करने की इच्छा रखता है, तो उसे ऐसा करने के पूर्व जाँच लेना चाहिए कि क्या बंध-पत्र कानूनी रूप से एक कंट्रेक्ट है? और उसे उस के विरुद्ध लागू कराया जा सकता है? इस अनुबंध को जाँचने का काम कोई कानूनी जानकार ही कर सकता है, जिसे कंट्रेक्ट कानून का अच्छा ज्ञान हो, और जो इस का लगातार अभ्यासी भी हो। अन्यथा इस अनुबंध को भंग करने वाले व्यक्ति और उस के गारंटर को अनुबंध की राशि देने के लिए तैयार रहना चाहिए।
एक रोचक मामला दिल्ली उच्चन्यायालय के समक्ष आ चुका है। जिस में मेसर्स राउंड द क्लॉक स्टोर्स लि. ने ऐसे ही बंध-पत्र और गारंटी के आधार पर साढ़े तीन लाख रुपयों और उस पर वसूली तक 6% ब्याज व अदालती खर्चे के लिए एक दावा युवनीत सिंह एवं अन्य के विरुद्ध दिल्ली जिला जज के समक्ष प्रस्तुत किया था जिस का संक्षिप्त विचारण किया जाना था। संक्षिप्त विचारण में दावे की सूचना मिलने के दस दिनों में न्यायालय में स्वयं या अपने वकील के माध्यम से उपस्थिति दर्ज करानी होती है। इस के पश्चात न्यायालय द्वारा निर्णय हेतु समन प्रतिवादीगण को जारी किया जाता है जिसे मिलने की तिथि के दस दिनों में प्रतिवादीगण को शपथपत्र या अन्य साधनों सहित वाद में अपनी प्रतिरक्षा के आधारों का वर्णन करते हुए आवेदन प्रस्तुत करना होता है कि वह उक्त वाद में प्रतिरक्षा करना चाहता है। न्यायालय इस आवेदन की सुनवाई कर आदेश पारित करता है कि प्रतिवादीगण वाद में प्रतिरक्षा के हकदार हैं या नहीं। यह आवेदन महत्वपूर्ण होता है जिसे किसी होशियार और दीवानी कानून के अच्छे जानकार वकील द्वारा ही तैयार करवाया जाना चाहिए। क्योंकि आवेदन मंजूर होने पर प्रतिवादीगण को वाद में अपनी प्रतिरक्षा साबित करने का अवसर प्राप्त होता है, और अस्वीकार होने पर दावा डिक्री हो जाता है अर्थात् वादीगण को दावे में मांगी गई राहत प्रदान कर दी जाती है।
इस मामले में युवनीत सिंह और अन्य की ओर से दावे में प्रतिरक्षा करने की अनुमति हेतु प्रस्तुत आवेदन को अतिरिक्त जिला जज ने यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि आवेदन में प्रतिरक्षा का कोई उचित और पर्याप्त आधार नहीं है। अतिरिक्त जिला जज के इस आदेश को उच्च-न्यायालय में चुनौती दी गई।
(आलेख लंबा हो जाने के कारण उच्च-न्यायालय के निर्णय और टिप्पणी द्वारा उपस्थित प्रश्नों का उपसंहार अगले आलेख में कुछ घंटों की प्रतीक्षा के उपरांत पढ़ें)