ओमप्रकाश व अन्य बनाम राधाचरण एवं अन्य के मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में दिया गया निर्णय निस्सन्तान हिन्दू विधवाओं के लिए यह चेतावनी देता है कि उन्हें तुरंत अपनी वसीयत कर देनी चाहिए। इस के साथ ही वह यह संदेश भी समाज को संप्रेषित करता है कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में तुरन्त संशोधन वाँछित है।
श्रीमती नारायणी देवी का विवाह दीनदयाल शर्मा के साथ 1955 में हुआ था। तीन माह बाद ही दीनदयाल शर्मा का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उसे ससुराल में नहीं रहने दिया गया और शीघ्र ही बाहर कर दिया। उस के बाद वह अपने मायके आ गई। वहाँ उस ने शिक्षा ग्रहण की और नौकरी प्राप्त कर ली। दिनांक ग्यारह जुलाई 1996 को उस का देहान्त हो गया। उस की माता श्रीमती रामकिशोरी ने उत्तराधिकार प्रमाण पत्र हेतु आवेदन प्रस्तुत किया तथा श्रीमती नारायणी देवी की ननद के पुत्र राधाचरण और अन्य द्वारा भी इसी तरह का आवेदन प्रस्तुत किया। दोनों में यह सहमति थी कि श्रीमती नारायणी देवी की सारी संपत्ति उन की स्वयं द्वारा अर्जित की गई थी। मुकदमे के दौरान माँ श्रीमती रामकिशोरी का भी देहान्त हो गया। तथा श्रीमती नारायणी देवी के भाई उन के स्थान पर विधिक प्रतिनिधि बनाए गए।
इस मामले में विवादित प्रश्न यह था कि श्रीमती नारायणी देवी की संपत्ति किसे प्राप्त होनी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने माना कि श्रीमती नारायणी देवी ने पति की मृत्यु के उपरांत अपनी ससुराल का मुहँ नहीं किया, यह भी कहा कहा कि हम यह भी मान लेंगे कि उस की शिक्षा में भी ससुराल का कोई योगदान नहीं रहा और जो भी योगदान रहा वह मायके का ही रहा। लेकिन इस मामले को एक बहुत कठोर मामला मानते हुए कहा कि हमारे हाथ कानून से बंधे हैं और हमें कानून के अनुसार ही निर्णय देना पड़ेगा।
हिन्दू उत्तराधिकार कानून के की धारा 15 (1) के अन्तर्गत किसी भी हिन्दू महिला की संपत्ति सब से पहले उस के पुत्रों-पुत्रियों (जिनमें पूर्व मृत पुत्र पुत्री के पुत्र पुत्री सम्मिलित हैं) तथा पति को प्राप्त होगी। इन में से कोई भी जीवित नहीं रहने पर पति के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होगी, वे भी नहीं होने पर माता और पिता को प्राप्त होगी। उन के भी न होने पर पिता के उत्तराधिकारियों को और उन के भी न होने पर माता के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होगी। इसी धारा-15 की उपधारा (2) में कहा गया है कि कोई संपत्ति यदि उसे उस के माता पिता से प्राप्त हुई है तो वह पहले तो उस के पुत्रों-पुत्रियों (जिनमें पूर्व मृत पुत्र पुत्री के पुत्र पुत्री सम्मिलित हैं) लेकिन उपधारा (1) में वर्णित उत्तराधिकारियों के स्थान पर पिता के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि श्रीमती नारायणी देवी की संपत्ति क्यों कि उस की स्वअर्जित संपत्ति थी इस कारण से वह उस के पति के उत्तराधिकारियों को ही प्राप्त होगी, न कि उस के माता-पिता के उत्तराधिकारियों को। इस मामले में श्रीमती नारायणी देवी और उस के भाइयों के प्रति संवेदना होना पृथक बात है लेकिन जब कानून के प्रावधान स्पष्ट हों तो संवेदना के आधार पर कोई व्याख्या नहीं की जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से स्पष्ट है कि आज के सामाजिक वातावरण में हिन्दू उत्तराधिकार कानून में तुरन्त बदलाव लाने की आवश्यक है। इस के साथ ही उन विधवा महिलाओं को यह निर्णय एक चेतावनी भी है जिन्हें अपने पति के संबंधियों से कोई सहानुभूति और सहायता के स्थान पर प्रताड़ना प्राप्त हुई और जो अपने स्वयं के श्रम पर और अपने माता-पिता या उन के परिवार के सदस्यों की सहायता से अपने पैरों पर खड़ी हो गईं और जिन्होंने अपनी संपत्ति अर्जित की है, उन्हें तुरंत अपनी वसीयत कर देनी चाहिए।
वैसे वसीयत तो प्रत्येक स्त्री-पुरुष को किसी भी उम्र में तुरंत कर देनी चाहिए। क्यों कि वसीयत को तो मृत्यु पर्यंत कभी भी बदला जा सकता है और अन्तिम वसीयत ही प्रभावशील मानी जाती है।