जॉन शोर द्वारा 1794 में किए गए सुधारों से न्याय प्रणाली में आए अवरोध दूर हुए, लेकिन गतिशीलता फिर भी नहीं आ सकी। अदालतों में पेश होने वाले नए मुकदमों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि उन्हों ने अदालत का काम करना मुश्किल कर दिया था। उसने इस के लिए 1795 में अपने उपायों की दूसरी श्रंखला प्रस्तुत की-
न्यायालयों का क्षेत्राधिकार परिवर्तन
जॉन शोर ने 1795 में 36वाँ विनियम जारी कर लघु वादों की अपील का क्षेत्राधिकार प्रांतीय न्यायालय से समाप्त कर जिला दीवानी न्यायालय के निर्णयों को अंतिम रूप से आबद्धकारी बना दिया गया। इस नई व्यवस्था में एक अपील की ही व्यवस्था की गई। इस से पहले दो अपीलो की व्यवस्था मौजूद थी। रजिस्ट्रारों को दो सौ रुपए तक मूल्य के वादों का निर्णय करने के लिए सक्षम कर दिए गए। मुंसिफ पचास रुपए तक मूल्य के वाद में निर्णय प्रदान करने के लिए सक्षम कर दिए गए। 1000 रुपए मूल्य तक के मामलों में प्रथम अपील प्रांतीय न्यायालय में और इस से अधिक मूल्य के वादों में द्वितीय अपील सदर दीवानी अदालत में होने लगी।
न्यायालय शुल्क की वापसी
लॉर्ड कॉर्नवलिस ने न्यायालय शुल्क को पूरी तरह समाप्त कर दिया था। जिस से अदालतों में दीवानी विवादों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई थी। जॉन शोर ने 30वाँ विनियम जारी कर न्यायालय शुल्क पुनः आरंभ कर दी। जॉन शोर की इस नीति की कड़ी आलोचना हुई। लेकिन न्यायालय शुल्क की पुनर्स्थापना से दीवानी वादों के संस्थापन में कमी आई और न्यायालयों की गतिशीलता में वृद्धि हुई। इस से बहुत से क्षुद्र मामले अदालत में प्रस्तुत होना बंद हो गए। लेकिन इस से बहुत से वास्तविक न्यायार्थियों की अदालत तक पहुँच समाप्त हो गई।
बनारस में न्यायालय प्रणाली
जॉन शोर ने बनारस के हिन्दू राजा से अनुमति प्राप्त कर बनारस में भी बिहार, बंगाल और उड़ीसा की तरह ही न्याय प्रणाली स्थापित की। 1795 में इस के लिए उसने विनियमों की एक संहिता की रचना की। उस ने बनारस के राज्य को 7वें और 8वें विनियमों के अंतर्गत बनारस, जौनपुर, गाजीपुर और मिर्जापुर में विभाजित कर के प्रत्येक स्थान पर एक जिला अदालत की स्थापनी की गई जिन में कंपनी के अनुबंधित कर्मचारियों को जिला दीवानी अदालत के न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट के अधिकार प्रदान किए गए। इन अदालतों की अपीलों की सुनवाई का अधिकार कलकत्ता स्थित सदर निजामत अदालत और सदर दीवानी अदालत को प्रदान किया गया। उस ने न्यायिक कार्य को अधिक गतिशील बनाने के लिए रजिस्ट्रार और मुंसिफ के न्यायालय भी बनारस राज्य में स्थापित किए। दांडिक न्याय के लिए प्रोविंशियल कोर्ट ऑफ अपील की स्थापना बनारस में की जो कि सर्किट न्यायालय के समान थी।
बनारस 14 फरवरी 1799
ब्राह्मणों को विशेष दर्जा
बनारस में यह नियम बनाया गया था कि किसी मामले में पक्षकार भिन्न भिन्न धर्मावलंबी हों तो न्याय प्रतिवादी की व्यक्तिगत विधि के अनुसार किया जाएगा। बनारस के हिन्दू शासक का समर्थन जुटाने के लिए जॉन शोर ने ब्राह्मणों को विशिष्ठ वर्ग का दर्जा दिया था जिन्हें मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था। मृत्यु दंड दिए जाने की स्थिति में उसे आजीवन कारावास में परिवर्त