आज वैसे भी मेरी डायरी में अदालत का काम कम था। फिर सुबह ही अखबार से यह खबर मिली कि आज वकील काम बंद रखेंगे। मैं ने उसी तरह से अपने काम को नियोजित करना शुरू कर दिया। मैं ने वे फाइलें ले ली जिन में नए मुकदमे तैयार कर पेश करने थे। अदालत के समय में दो मुकदमों की तैयारी कर ली। उन्हें कल अदालत में पेश कर दिया जाएगा। उस के अलावा एक बीमा कंपनी की फाइलें ले ली ताकि वापसी में उस के दफ्तर जा कर कुछ मुकदमों के बारे में आपस में राय कर ली जाए। वापसी में वहाँ गया भी तो संबंधित अफसर आज अवकाश पर थे। तो वह काम छूट गया। शाम को एक सगाई में गए और वापस आ कर रात को अपने दफ्तर में बैठ कर कल के मुकदमों की तैयारी कर ली।
आज की काम बंदी के दो कारण थे। एक तो कोटा के पास की कस्बाई अदालत में कई दिनों से मजिस्ट्रेट-कम-सिविल जज के काम और व्यवहार के कारण उस का बहिष्कार चल रहा है। इन जज साहब के यहाँ काम का विवरण मैं अपने कुछ आलेखों कस्बे की अदालत में कुछ घंटे, आशा नैहर लौटी औरफैसले का दिन मुकर्रर हुआ में पूर्व में दे चुका हूँ। उस मामले में आज तक फैसला न हुआ। मैं जानता था कि किसी दिन उस अदालत के लिए काम बंदी होगी।
कामबंदी का दूसरा कारण भी यही था। लेकिन वह अदालत कोटा की न हो कर कोटा संभाग के एक जिला मुख्यालय की एक अदालत का था। दुर्भाग्य यह कि दोनों ही अदालतों में पीठासीन अधिकारी महिलाएँ हैं। दूसरी अदालत जो संभाग के अन्य जिला मुख्यालय पर स्थित है, उस में जो पीठासीन अधिकारी हैं वह स्वयं कुछ वर्ष पहले हमारी ही अभिभाषक परिषद की सदस्य रह चुकी हैं और यदि वे आज भी वकील होतीं और उन के साथ किसी मजिस्ट्रेट/जज ने कोई दुर्व्यवहार किया होता, तो शायद उस दुर्व्यवहार के कारण भी कोटा अभिभाषक परिषद के सदस्य वकील अदालत के बहिष्कार का निर्णय. ले सकते थे। इस मामले में एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि वे हमारी अभिभाषक परिषद के एक वर्तमान वरिष्ठ सदस्य अभिभाषक की भार्या भी हैं और ये वरिष्ठ वकील साहब कोटा अभिभाषक परिषद के पदाधिकारी भी रह चुके हैं। कैसा भी विवाद हो? उसे मिल बैठ कर निपटाया जाना चाहिये था। जिस से काम की हानि नहीं हो। इस मामले में जब कि एक जज/मजिस्ट्रेट का संबंध हमारी परिषद जैसी बड़ी अभिभाषक परिषद से रहा है तो वह एक महति भूमिका अदा कर सकती है।
दूसरी और अभिभाषकों की इन समस्याओं के प्रति उच्च न्यायालय का रवैया भी उदासीनता और प्रशासनिक किस्म का रहता है। ऐसे समय में जब कि अदालतें काम के बोझे से अटी पड़ी हैं और पूरी न्याय व्यवस्था की प्रतिष्ठा देश भर में दाँव पर है। उच्च न्यायालय प्रशासन को भी मामले की तुरंत जाँच कर के उचित और त्वरित निर्णय लेना चाहिए। अनेक बार तो किसी किसी जज-मजिस्ट्रेट के व्यवहार, कार्यपद्धति और काम के निपटारे से ऐसा लगता है कि वे केवल हाजरी भरने की नौकरी कर रहे हैं,या कि असली गुनहगार वे हैं जिन्हों ने इस तरह के अधिकारियों को नियुक्ति दी है, या कि नियुक्ति के लिए चयन की जो प्रक्रिया अपनाई जा रही है उसी में दोष है।
आखिर वकील प्रोफेशनल हैं, वे बहिष्कार कर के अपने ही काम की हानि करते हैं, उन की इस हानि का तुरंत प्रभाव दिखाई देता है। उन की जेब में आने वाली राशि तुरंत कम हो जाती है। फिर भी वे बहिष्कार जैसा कदम उठाते हैं तो उस के पीछे कुछ तो वाजिब कारण होते हैं। इन समस्याओं की ओर उच्च-न्यायालय प्रशासन और सरकार को नाक का प्रश्न न बना कर तुरंत ही उचित कदम उठाने चाहिए। अपितु होना तो यह चाहिए कि उच्च-न्यायालयों और जिला न्यायालयों के स्तर पर समस्या निवारण के लिए वकीलों और जजों की संयुक्त समितियों का निर्माण हो जिस से वे न्यायिक प्रक्रिया में समय समय पर आने वाले इन ग
तिरोधों को समाप्त करने और कम से कम उन के अवसर कम करने के लिए तुरंत कदम उठा सकें।