न्याय की दुर्दशा देखें नवभारत टाइम्स के इस संपादकीय में …….
29 Nov 2007, 1914 hrs IST
कागजी घोड़े देश में अदालती कार्यवाहियों पर कागजी घोड़े हावी हैं, जिनकी सुस्ती ने इंसाफ की रफ्तार भी धीमी कर दी है। इन घोड़ों ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त के साथ खूब खेल किया। इन्हीं की मेहरबानी से कभी उनके जेल से बाहर आने में विलंब हुआ तो कभी इन्हीं के कारण वे दो महीने तक जेल जाने से बचे भी रहे। टाडा कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद जब वह जेल गए तो सुप्रीम कोर्ट ने 24 अगस्त को उन्हें अंतरिम जमानत दी और कहा कि फैसले की कॉपी मिलते ही उन्हें अदालत में समर्पण करना होगा। लेकिन जेल से छूटने में उन्हें तीन दिन लग गए, क्योंकि टाडा कोर्ट ने जेल अधिकारियों तक दस्तावेज नहीं पहुंचाए थे।
खैर, उसके बाद फैसले की कॉपी मिलने में दो महीने लग गए। यानी संजय दत्त इतने दिनों तक बाहर रहे। 22 अक्टूबर को कॉपी हासिल होने के बाद उन्होंने आत्मसमर्पण किया और जेल चले गए। अब जब उन्हें जमानत मिल गई तो जेल से निकलने में दो दिनों की देर हो गई। वजह थी- कागजी कार्यवाही में विलंब। ऐसा तब हुआ जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ईमेल और फैक्स के जरिए अपने निर्णय की सूचना संबद्ध अधिकारियों तक पहुंचाई थी। लेकिन इस देश के सारे कैदी संजय दत्त की तरह भाग्यशाली नहीं हैं।
पिछले दिनों सूचना के अधिकार कानून के तहत जो जानकारी मिली है वह हैरत में डालती है। एक अदालत के आंकड़े बताते हैं कि एक जेल में सैकड़ों ऐसे कैदी हैं जो अपनी सजा के खिलाफ ऊपरी अदालत में सिर्फ इसलिए अपील नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास जजमेंट की कॉपी नहीं है। मुंबई के फोर्ट स्थित सेशन कोर्ट द्वारा पिछले पांच सालों में 2247 लोगों को सजा सुनाई गई, लेकिन इनमें से संभवत: 44 फीसदी लोगों को फैसले की कॉपी नहीं मिली। इसके बगैर वे अपील नहीं कर सकते। वे आज भी जेल में जजमेंट की कॉपी का इंतजार कर रहे हैं, जबकि सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद फैसले की कॉपी नि:शुल्क प्राप्त करने का उन्हें कानूनी हक है। जब एक कोर्ट का यह हाल है, तो देश के हजारों न्यायालयों में क्या स्थिति होगी। अदालती अमले के ढीले-ढाले रवैये और कामकाज के पुराने तौर-तरीके के कारण असंख्य लोगों के लिए न्याय ठिठका पड़ा है। न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन इस तरह के छोटे पहलुओं की प्राय: अनदेखी की जाती है। अगर थोड़ी तत्परता दिखाई जाए तो बहुतों को राहत मिल सकती है।
यह संपादकीय न्याय प्रणाली का एक छोटा सा पहलू प्रस्तुत करती है। उस की विस्तृत पड़ताल के लिए ‘तीसरा खंबा‘ है ही।