बिजनेस स्टेंडर्ड के 18 सितंबर 2011 के अंक में एम. जे. एंटनी के एक लेख का हिन्दी अनुवाद वकीलों की चालबाजी से लंबी खिंच जाती है मुकदमे बाजी शीर्षक से प्रकाशित किया है। इस आलेख में उन्हों ने उच्चतम न्यायालय के दो निर्णयों का उल्लेख करते हुए कहा है कि सभी न्यायाधीश अतीत में अधिवक्ता की भूमिका अदा कर चुके होते हैं, इसी तरह सभी अधिवक्ताओं के भविष्य में न्यायाधीश बनने की संभावना रहती है। इस तरह वे समूची न्याय प्रणाली को अंदरूनी तौर पर जानते हैं। ऐसे में अगर न्यायाधीश उन कुछ युक्तियों का खुलासा करते हैं जिनको अपना कर विधि पेशे के लोग न्याय प्रक्रिया में देरी करते हैं तो लोगों को उनकी बातों को गौर से सुनना चाहिए।
उल्लखित मामलों में से एक मामला तो दिल्ली उच्च न्यायालय में वर्ष 1977 में शुरू हुआ था।
यह मामला इतने न्यायालयों में घूमता रहा कि सर्वोच्च न्यायालय को इन का आकलन करने में छह पन्ने लग गए। रामरामेश्वरी देवी बनाम निर्मला देवी के इस मामले में अपनी प्रारंभिक टिप्पणी में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘यह इस बात का शानदार नमूना है कि कैसे हमारे न्यायालयों में मामले चलते हैं और किस तरह बेईमान वादी इनके जरिए अनंतकाल तक अपने विरोधियों तथा उनके बच्चों को परेशान करने के लिए न्याय प्रणाली का दुरुपयोग कर सकते हैं।’
यह मामला इतने न्यायालयों में घूमता रहा कि सर्वोच्च न्यायालय को इन का आकलन करने में छह पन्ने लग गए। रामरामेश्वरी देवी बनाम निर्मला देवी के इस मामले में अपनी प्रारंभिक टिप्पणी में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘यह इस बात का शानदार नमूना है कि कैसे हमारे न्यायालयों में मामले चलते हैं और किस तरह बेईमान वादी इनके जरिए अनंतकाल तक अपने विरोधियों तथा उनके बच्चों को परेशान करने के लिए न्याय प्रणाली का दुरुपयोग कर सकते हैं।’
यह मामला एक व्यक्ति को भूखंड आवंटन से आरंभ हुआ था, बाद में तीन छोटे भाई भी उसके साथ रहने लगे। छोटे भाइयों ने संपत्ति के बँटवारे की मांग की। बँटवारे का मामला तो बहुत पहले ही निपट गया था लेकिन न्यायाधीशों के मुताबिक मामले की लागत कौन वहन करेगा जैसेतुच्छ तथा महत्त्वहीन प्रश्न शेष रह गए। आखिर ये मामले भी सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच ही गए। इस मामले में एक पक्ष द्वारा पेश किए गए बहुत सारे आवेदनों को देखकर (जिनमें से कुछ गलत तथ्यों पर आधारित थे) न्यायालय ने पहले कहा था, ‘याचिकाकर्ताओं का एक मात्र उद्देश्य मुकदमे में देरी करना है, जबकि यह मामला पहले ही 18 वर्षों से लंबित है। यह बात साबित हो चुकी है कि ऐसी तुच्छ मुकदमेबाजी न्याय प्रक्रिया को शिथिल बनाती है और इसकी वजह से सही वादियों को आसानी से और तेज गति से न्याय मिलने में देरी होती है।’
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में आगे कहा, ‘और अधिक समय गँवाए बिना प्रभावी उपचारात्मक उपाय नहीं अपनाए गए तो समूची न्यायपालिका की विश्वसनीयता दाँव पर लग जाएगी।’ मामले में न्याय मित्र की भूमिका निभा रहे एक वरिष्ठ अधिवक्ता की किताब “जस्टिस, कोट्र्स ऐंड डिलेज” का हवाला देते हुए न्यायाधीश ने कहा कि न्यायालयों का 90 फीसदी समय और संसाधन अनचाहे मामलों की सुनवाई में निकल जाते हैं। यह हमारी मौजूदा प्रणाली की कमियों के चलते होता है जिसमें गलती करने वाले को सजा के बजाय प्रोत्साहन मिलता है। यदि न्यायालय इस मामले में चौकस रहें तो मुकदमेबाजी का गलत फायदा उठाने वालों की संख्या को काबू किया जा सकता है।
पुस्तक के मुताबिक हर लीज अथवा लाइसेंस अपनी नियत तिथि की समाप्ति पर किसी न किसी मामले की वजह बन जाते हैं। न्यायालय ऐसे मामलों से भरे हुए हैं क्योंकि इनमें गलत करने वालों को स्वाभाविक तौर पर लाभ हासिल हो