तीसरा खंबा

न्याय में देरी : लोकसभा चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं

जब भी कोई मुवक्किल मुकदमा करने के लिए या कानूनी सलाह हासिल करने के लिए मेरे पास आता है तो वह यह प्रश्न जरूर करता है, कि उस को कब तक राहत मिल सकेगी?  लेकिन इस का जवाब मैं नहीं दे सकता। यदि मैं इस का कोई भी जवाब दे भी दूँ तो वह सिरे से ही मिथ्या होगा।  मैं किसी मुकदमे की उम्र का हिसाब नहीं लगा सकता और न यह कह सकता हूँ कि उस के मुकदमे का निर्णय पहली अदालत से कब हो जाएगा। ऐसे में मैं यह तो बिलकुल भी नहीं बता सकता कि उस व्यक्ति को कब राहत मिल सकेगी?

मैं रोज अदालत में किसी न किसी मुवक्किल को अपने वकील से इस बात के लिए उलझते देखता हूँ कि  मुकदमा पाँच साल गिरह मना चुका है, मुकदमे का अब तक फैसला क्यो नहीं हुआ है? जब कि मुकदमा करते समय वकील साहब ने कहा था कि दो साल में मुकदमा निपट जाएगा।  कई बार तो हाथापाई भी हो जाती है और दूसरे वकीलों को बीच बचाव भी करना पड़ जाता है।

सब को और खास तौर पर वकीलों को पता है कि मुकदमो की उम्र बढ़ने के क्या कारण हैं? वे जानते हैं कि एक एक अदालत में उस की शक्ति से चार से दस गुना तक मुकदमे हैं। उसे सब मुकदमों और न्यायार्थियों से समान व्यवहार करना पड़ता है। नतीजा यह है कि मुकदमों की सामान्य उम्र बहुत अधिक बढ़ गई है।  इस का एक नतीजा यह भी हुआ है कि अब महज न्याय पाने के लिए कोई मुकदमा नहीं करता, बल्कि तब करता है जब उस के लिए मुकदमा करना एक मजबूरी हो जाती है।  पाँच-दस हजार की रकम की वसूली के लिए तो मुकदमा करने के लिए कोई वकील तक तैयार नहीं होता। वह जानता है कि इस मुकदमे में उसे जितना श्रम करना पड़ेगा उस के मुकाबले उसे फीस नहीं मिलेगी।  इस स्थिति से न्यायार्थियों की संख्या भी घटी है।  जिस का प्रभाव यह भी है कि वकीलों को अब कम मुकदमे मिल रहे हैं।  मेरा अनुमान है कि आधे से अधिक मुकदमे तो अदालत तक पहुँचते ही नहीं हैं।

इस स्थिति से वकीलों के व्यवसाय पर भी विपरीत असर हुआ है।  लेकिन इस के बावजूद यह देखने में आता है कि इस समस्या से निपटने के लिए वकील खुद सजग नहीं हैं।  एक तरह से वे इस के विरुद्ध आवाज न उठा कर वे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।  खुद विधि मंत्री संसद में स्वीकार कर चुके हैं कि देश में प्रति 10 लाख आबादी पर 50 न्यायालय होने चाहिए। जब कि वर्तमान में इन की संख्या मात्र 11-12 है। यह एक अत्यन्त दयनीय स्थिति है।  अदालतों की संख्या बढ़ाने की जिम्मेदारी सरकारों की है जो उस के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था कर सकती है।  लेकिन सरकारें इस ओर से उदासीन रही हैं।

सरकारों की उदासीनता का जो प्रमुख कारण है वह यह कि न्याय का विषय सरकार के चुने जाने पर कोई प्रभाव नहीं डालता।  कोई दबाव समूह नहीं है जो लोकसभा या विधान सभा चुनाव के समय राजनीति और वोटों को प्रभावित करता हो।  वर्तमान में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं।  एक चौथाई इलाकों में वोट डाले जा चुके हैं और कल तक देश का आधा मतदान संपन्न हो चुका होगा।  लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान एक बार भी यह मुद्दा नहीं उठा कि कोई उम्मीदवार या पार्टी देश में न्याय व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए अदालतों की संख्या में वृद्धि करेगी।  वास्तविकता तो यह है कि इस चुनाव में
जनता के हितों से सम्बन्धित मुद्दे सिरे से गायब हैं।  जब तब इस मुद्दे पर लिखते रहने और हल्ला करते रहने वाले पत्रकार और मीडिया भी चुनाव में चुप हैं।

मुझे लगता है कि आने वाली लोकसभा में भी यह विषय कभी चर्चा का विषय नहीं बनेगा और सरकार भी जनता की उदासीनता को देख कर इस मुद्दे पर चुप्पी ही साधे रहेगी।  जब तक वकील समुदाय खुद इस मुद्दे पर किसी संघर्ष में नहीं उतर आती है। तब तक दशा में कोई भी सुधार होने की संभावना तक नजर नहीं आती है।

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