गोपाल देश के तीसरे नंबर के बडे औद्योगिक घराने के नायलोन बनाने वाले कारखाने में सीनियर सुपरवाइजर था। मिल पहले से कम लाभ देने लगी तो मालिक उस की पूंजी का अन्यत्र इस्तेमाल करने के उपाय ढूंढने लगे। 1983 में एक दिन चार हजार मजदूर छंटनी कर दिए गए। गोपाल को छंटनी तो नहीं किया गया ले किन उस पर त्यागपत्र देने का दबाव डाला गया और नहीं देने पर यह कहते हुए कि वह मजदूर नहीं इसलिए एक माह का वेतन और अपनी ग्रेच्यूटी ले और घर बैठे। गोपाल को यह मंजूर नहीं था। वह अपने को नौकरी की लडाई को अदालत में ले गया।
श्रम अदालत ने गोपाल के मामले में 1992 में निर्णय दे दिया। लेकिन अभी हाईकोर्ट बाकी था। हाईकोर्ट ने जुलाई 2002 में मालिकों की याचिका खारिज कर दी। गोपाल को जीत हासिल हुई। इस समय तक मालिकों ने अपने सभी कारखानों में उत्पादन बंद कर दिया और कंपनी को बीमार बता कर कंपनी अस्पताल (बीआईएफआर) चले गए।
गोपाल आज भी अदालत के फैसले को लागू कराने के लिए अदालतों के चक्कर लगा रहा है और अदालत है कि उसे उस का मामला सुन ने को समय नहीं है। कभी समय होता है तो मालिक का वकील बीमार या बाहर होता है या वकीलों की हड़ताल होती है। मुकदमें की तारीख बदलती है तो मुकदमा चार महीने आगे खिसक जाता है।
गोपाल की रिटायरमेंट की तारीख निकल गई तो उस ने ग्रेच्यूटीमांगी। मालिक वह भी पूरी देने को तैयार नहीं उस के लिए भी उसे अदालत जाना पड़ा। सरकार ने गोपाल के मिल मालिक के सभी मुकदमें दौ सौ किलोमीटर दूर की अदालत में स्थानान्तरित कर दिए। अब गोपाल जिसे पिछले चौबीस सालों से कोई वेतन नहीं मिला है वह वहां जा कर अपने मुकदमें को कैसे लड़े? और कैसे उसे न्याय मिले ?
इन चौबीस वर्षों में गोपाल ने अपना एक बेटा खो दिया है दूसरे ने एक छोटा उद्योग सरकारी कर्जे से लगाया था। तकनीक के त्वरित नवीनीकरण ने उसके उद्योग को बरबाद कर दिया और वह तीन लाख के सरकारी कर्जे का बोझ सिर पर लादे कहीं नौकरी कर रहा है। सरकार गोपाल का मकान इस कर्जे की एवज में नीलामी के लिए तैयार है मगर वही सरकार गोपाल के जीते हुए मुकदमें से मिलने वाले बाईस–पच्चीस लाख उसे दिलाने को कुछ नहीं कर सकती इसके अलावा कि वह अदालतों कें चक्कर काटता रहे।
ऐसीहीएक अन्य कथाआगेकीकड़ीमें….