तीसरा खंबा

पानी सर के ऊपर से गुजरने वाला है

उन्नीस अप्रेल को उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री के संबोधन ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब पानी सर के ऊपर से गुजरने वाला है। उन्हों ने स्वीकार किया कि सारे उपाय अपना लिए जाने के बाद भी अदालतों में मुकदमों का अम्बार कम नहीं हो रहा है। केन्द्र सरकार ने हाईकोर्टों में 152 जजों के पद स्वीकृत कर दिए हैं, सुप्रीम कोर्ट में भी जजो की संख्या बढ़ाया जाना प्रक्रिया में हैं। इन घोषणाओं के बाद उन्हों ने सीधे ही राज्य सरकारों पर हमला किया कि ध्यान दिलाए जाने के बावजूद कुछ को छोड़ कर राज्य सरकारों ने अधीनस्थ न्यायालयों (जिला और छोटी अदालतें) की संख्या बढ़ाने की दिशा में कोई उपाय नहीं किया है।

इस के बाद उन्होंने अदालतों और जजों के आवास अच्छी हालत में नहीं होने और उन्हें गरिमा के उपयुक्त बनाए रखने के लिए कदम उठाने, ग्रामीण न्यायालयों की स्थापना, मुकदमों की संख्या कम करने के वैकल्पिक साधनों, परिवार विवादों को शीघ्र हल करने आदि का भी उल्लेख किया। हम और बातों पर बाद में चर्चा कर सकते हैं। लेकिन अभी अदालतों की संख्या के बारे में बात करेंगे।

जैसे जैसे आबादी बढ़ी है और समाज आर्थिक विकास की ओर बढ़ रहा है, वैसे ही कानूनों और कानूनी विवादों की संख्या भी बढ़ी है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि हम अदालतों की संख्या भी बढ़ाएं। समय से अदालतों की संख्या नहीं बढ़ने से अनेक समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं।

आबादी बढ़ने के साथ ही हमें स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों की संख्या बढ़ानी पड़ी है। हालाँकि उन्हें आज भी पर्याप्त नही कहा जा सकता। लेकिन इन क्षेत्रों में बहुत सा दायित्व हमारे कथित प्राइवेट सेक्टर ने बाँट लिया है। उस से सरकार पर बोझा कम हो गया। सरकार पर केवल उन्हें नियंत्रित करने का काम रह गया। यह कैसा हो रहा है सभी जानते हैं। लेकिन अदालतों का जिम्मा तो इस कथित प्राइवेट सैक्टर को नहीं दिया जा सकता। इस जिम्मेदारी को पूरा करने का काम तो सरकार का ही है, और उसे ही करना पड़ेगा।

प्रधानमंत्री ने जिस तरीके से हाईकोर्टों में जजों की संख्या बढ़ाने और सुप्रीमकोर्ट में बढाया जाना प्रक्रिया में होने की घोषणा करते हुए सीधे सीधे राज्य सरकारों को दोषी बताया है, उस से ऐसा लगता है कि आने वाले चुनावों में जनता को न्याय प्रदान करना भी एक मुद्दा बनेगा। काँग्रेस इसे मुद्दा बना कर अन्य दलों को कठगरे में खड़ा करने के लिए तैयार नजर आती है।

अगर ऐसा होता है तो यह उचित ही होगा। इस से जनता का शिक्षण तो होगा ही और सभी दलों और राजनीतिज्ञों को भी सोचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा कि जनता को न्याय प्रदान करने के साधन जुटाना भी उन की जिम्मेदारी है। हम अपेक्षा कर सकते हैं कि गैर कांग्रेसी दलों की राज्य सरकारें प्रधानमंत्री के इस भाषण से सबक ले कर चुनाव के पहले कुछ कदम उठाने का प्रयास करेंगी।

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