मैं एक सरकारी अधिकारी हूँ, मैंने एक प्रकरण में यह पाया की पूर्व के अधिकारीयों द्वारा धोखा दे कर कुछ लोगों को लाभ पहुँचाया है तथा लोगो द्वारा जालसाजी कर कूटरचित अंक पत्रों का प्रयोग किया गया है। इस पर जिलाधिकारी द्वारा एक जांच समिति गठित की गई जिसका एक सदस्य मैं भी था। समिति ने पूर्व अधिकारियों व अन्य लोगो को धोखा दे कर लाभ लेने में संलिप्त पा कर वैधानिक व विभागीय कार्यवाही की संस्तुति की। जिसके आधार पर मौखिक आदेश पर मुझे उन पूर्व अधिकारियों के आधार पर जो मेरे समकक्ष ही हैं, प्राथमिकी दर्ज करानी पड़ी, मामला न्यायालय में है। किंतु मेरा विभाग मेरे विरूद्ध कार्यवाही की धमकी दे रहा है कि आपने प्राथमिकी दर्ज कराने से पूर्व विभागाध्यक्ष की स्वीकृति क्यों नही ली? विभाग उन अधिकारियों पर कोई विभागीय जाँच न करा कर, उल्टे मुझे ही जवाब सवाल कर रहा है। कृपया बताएं की इसमे कानून मेरी क्या मदद कर सकता है?
अरुण जी, आप ने नहीं बताया कि आप किस राज्य सरकार के या केन्द्र सरकार के किस विभाग में, किस पद पर हैं? यदि यह जानकारी उपलब्ध होती तो उत्तर बहुत आसान हो जाता। हर राज्य सरकार के नियम पृथक हैं। यदि आप अब भी यह जानकारी दें तो आप को अधिक उपयोगी उत्तर दिया जा सकता है। यदि आप चाहेंगे तो आप द्वारा दी गई सूचनाएँ गोपनीय रखी जाएंगी।
यदि जिलाधिकारी के आदेश पर गठित कमेटी की संस्तुति पर और जिलाधिकारी के मौखिक निर्देश पर आप ने पुलिस के पास प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवाई है, तो आप ने कोई दुराचरण नहीं किया है। किसी भी राजकीय कर्मचारी की निष्ठा राज्य के प्रति होती है, न कि विभाग के प्रति।
आप ने यह तथ्य बताया है कि मामला न्यायालय के समक्ष लंबित है। जिस का सामान्य अर्थ यही है कि पुलिस ने मामले का अन्वेषण करने के उपरांत अपराध का घटित होना साबित पाया और आरोप पत्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 39 में वर्णित कुछ अपराधों के घटित होने का पता यदि किसी भी व्यक्ति को लगता है तो उस की सूचना पुलिस को देना उस का कर्तव्य है। यदि आप यह बताएँ कि पुलिस ने किन धाराओं के अंतर्गत आरोप पत्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया है तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि एक सामान्य व्यक्ति के रूप में इस तरह की प्राथमिकी पुलिस के समक्ष दर्ज कराना आप का कर्तव्य था और आप ने अपने सामान्य कर्तव्य का पालन किया है कोई दुराचरण नहीं किया है।