उज्जैन से विजेता जैन पूछते हैं –
मेरे पिता जी को एक व्यापारी से बैंक चैक प्राप्त हुआ। चैक बैंक में बाउंस हो गया उन्होंने कोर्ट में केस किया और कोर्ट ने फैसला मेरे पिता के पक्ष में सुनाया। व्यापारी ने रकम कोर्ट में २-३ महीने में देने का बोला और फिर से कोर्ट में माननीय जज साहब के सामने बैंक चैक दिया लेकिन बैंक चेक फिर से बाउंस हो गया। फिर से केस करना पड़ा, लेकिन २-३ साल हो गए केस का कुछ परिणाम नहीं आ रहा है बार बार तारीख आगे बढ़ रही है। कुछ उपाय बताएँ जिस से केस का परिणाम जल्द आ जाए।
उत्तर –
विजेता जी,
इस के बाद अदालत में दिया गया चैक भी बाउंस हो गया। आप के पिताजी ने फिर से मुकदमा लगाया। लेकिन अब निर्णय नहीं हो पा रहा है। इस का कारण आप ने पता करने की कोशिश नहीं की। यदि आप पता करेंगे तो शायद वहाँ यह जानकारी मिले कि उस व्यापारी ने अपना पता बदल लिया है या वह शहर छोड़ कर चला गया है और उसे अदालत का सम्मन या वारंट तामील नहीं हो रहा है। यदि वह एक बार अदालत में हाजिर हो भी गया हो और आगे की तारीखों पर अनुपस्थित हो गया हो तो उस की जमानत जब्त हो चुकी होगी। अदालत ने उसे बुलाने के लिए वारंट जारी किए हुए हो सकते हैं। जब तक अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित नहीं होगा। कार्यवाही ऐसे ही चलती रहेगी। इस लिए अभियुक्त को वारंट तामील करवाने का काम आप को कराना होगा और उस के हाजिर हो जाने के बाद उस की जमानत का विरोध इस आधार पर करना पड़ेगा कि उस की नीयत अदालत और न्याय से भागने की है।
वास्तविकता यह है कि हमारे देश में न्यायालय जरूरत के केवल 20 प्रतिशत हैं, उन पर काम का पाँच गुना बोझ है। न्यायाधीश औसतन उन की क्षमता से दुगना काम कर रहे हैं। लेकिन इस से निर्णयों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है जो अंततः न्यायालयों की साख को भी कम करती है। संसद और विधानसभाएँ हर सत्र में कुछ नए कानून बनाती हैं। जिस के कारण अदालतों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता रहता है। जब धारा 138 अस्तित्व में आई तो यह समझ थी कि सरकारें कुछ न्यायालय और खोलेगी। कुछ न्यायालय स्थापित भी किए गए लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं। मेरे नगर में केवल धारा 138 परक्राम्य विलेख अधिनियम के मुकदमे सुनने वाली अदा
वास्तविकता यह है कि हमारे देश में न्यायालय जरूरत के केवल 20 प्रतिशत हैं, उन पर काम का पाँच गुना बोझ है। न्यायाधीश औसतन उन की क्षमता से दुगना काम कर रहे हैं। लेकिन इस से निर्णयों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है जो अंततः न्यायालयों की साख को भी कम करती है। संसद और विधानसभाएँ हर सत्र में कुछ नए कानून बनाती हैं। जिस के कारण अदालतों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता रहता है। जब धारा 138 अस्तित्व में आई तो यह समझ थी कि सरकारें कुछ न्यायालय और खोलेगी। कुछ न्यायालय स्थापित भी किए गए लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं। मेरे नगर में केवल धारा 138 परक्राम्य विलेख अधिनियम के मुकदमे सुनने वाली अदा