तीसरा खंबा पर यह लंबी चलने वाली श्रंखला भारत में विधि के इतिहास पर आधारित है, जिसे आज से प्रारंभ किया जा रहा है। इसे प्रतिदिन प्रस्तुत नहीं किया जा सकेगा। बीच-बीच में कानूनी सलाह, कानून और न्याय व्यवस्था पर आलेख आते रहेंगे लेकिन यह श्रंखला जारी रहेगी। इस श्रंखला में भारत में विधि के इतिहास की संक्षिप्त रूपरेखा आप को जानने को मिलेगी। भारतीय कानून के विकास में रुचि रखने वालों और कानून के विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी सिद्ध हो सके साथ ही सामान्य पाठकों को भी इस की जानकारी होती रहे, यह ऐसा ही एक प्रयास है। आशा है, यह प्रयास आप को पसंद आएगा।
श्रीगणेशः
सिंधु सभ्यता से प्राप्त पुरावशेषों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस सभ्यता में वैचारिक विकास पर्याप्त विस्तार पा चुका था। समाज ने एक सुव्यवस्थित रूप ले लिया था। वे सुंदर और सुनियोजित नगरों में निवास करते थे। ये नगर स्वयं ही निर्माण कला के नियमों पर बने हुए थे। ऐसे में यह नहीं हो सकता कि वह समाज किसी सुव्यवस्थित विधि के बिना संचालित होता रहा होगा। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने अतीत के उस स्वर्णिम काल के बारे में आज भी कोई निश्चयात्मक जानकारी हासिल नहीं कर सके हैं। वहाँ लिपिबद्ध बहुत कुछ मिला है, लेकिन हम उस लिपि को पढ़ने में असमर्थ रहे हैं और यह नहीं जान सकते कि उस सुव्यवस्थित समाज की विधियाँ क्या थीं।