तीसरा खंबा

भ्रष्टाचार की मुर्गियों का पोल्ट्री फार्म

हम आप को फैमिली कोर्ट की सैर करवा रहे थे। बीच में ही यह पोल्ट्री फार्म आ टपका। जरा इस की ही बानगी देखें……..

देश में आउटसोर्सिंग चल पड़ी है। हर कोई, हर कोई काम जरीए आउटसोर्सिंग कराना चाहता है। बड़े बड़े उद्योग,कल-कारखाने अपना अधिक से अधिक काम ठेकेदार के मजदूरों से कराना चाहते हैं। इस तरीके से वे मजदूरों को वाजिब वेतन देने और अनेक जरुरी सुविधाएं देने से बच जाते हैं। इस से उन का बहुत धन बचता है और उत्पादन सस्ता पड़ता है। मुनाफा बढ़ जाता है। वे किसी भी मजदूर की नौकरी की सामाजिक सुरक्षा से भी बच जाते हैं। ठेकेदार के ये मजदूर जब अपना हक मांगने लगते हैं तो ठेकेदार का ठेका बन्द कर दिया जाता है। मजदूरों की नौकरी खत्म हो जाती है। दोनों के पास जवाब होता है। मालिक के पास यह कि ठेकेदार का काम ठीक नहीं था, और ठेकेदार के पास यह कि वह क्या करे? उस का ठेका ही बन्द हो गया।

अब यह आउटसोर्सिंग सरकारी संस्थाओं और नगर पालिका और नगर निगम जैसी संवैधानिक संस्थाओं में भी होने लगी है। नगर निगमों में सफाई का आधे से अधिक काम ठेकेदारों के मजदूरों के जिम्मे है। इस से बहुत लाभ हैं। एक तो निगम को मजदूरों का वेतन लगभग आधा ही देना पड़ता है। फिर यह रोजन्दारी मजदूर सेवा भी बहुत करता है। उस की नौकरी कच्ची जो होती है। वह निगम के अफसरों की सेवा करता है, पार्षदों और महापौरों, उप-महापोरो और सफाई समिति के पार्षदों की विशेष सेवा करता है। इस से नगर निगम में बोर्ड में जो पार्टी होती है उस के कार्यकर्ताओं को ठेके मिलते हैं इस से बेरोजगारी कम होती है, ऊपर से मंत्रियों, सांसदों, विधायकों,महापौरों, उप-महापोरो को मुहल्लों में माला पहनाने और स्वागत करने का अच्छा इंतजाम हो जाता है।

यह बरस चुनावों के पहले का साल है। इसलिए राजस्थान सरकार ने न्यूनतम मजदूरी 73 रुपए से बढ़ा कर 100 रुपए कर दी है। इस कारण से कोटा नगर निगम में सफाई मजदूर सप्लाई करने का ठेका भी 100 रुपए प्रति मजदूर में हुआ है। यानी अब नगर निगम ठेकेदार को एक मजदूर की सप्लाई पर 100 रुपए देगी। यह 100 रुपए तो मजदूर की मजदूरी हुई। इस पर ठेकेदार राज्य बीमा का अंशदान, सर्विस टैक्स, इन्कमटैक्स, श्रमविभाग के लायसेंस की फीस अपनी जेब से देगा और अपनी रोटी का जुगाड़ हवा में से करेगा। यह आश्चर्य नहीं है, बिलकुल हवा में से ही करेगा।

आप सोच रहे होंगे कि यह तरकीब आप के पल्ले पड़ जाए तो फिर कुछ करने की जरूरत ही नहीं। तो तरकीब भी आप को बताए देते हैं। ठेकेदार 50 मजदूर सप्लाई करेगा, कागज में उन्हें 70 बताएगा। ये चालीस हवाई मजदूरों में से कुछ वार्ड पार्षद की रोटी जुटाएंगे,और कुछ महापौरों, उप-महापोरों की शेष से राज्य बीमा का अंशदान, सर्विस टैक्स, इन्कमटैक्स, श्रमविभाग के लायसेंस की फीस का इन्तजाम होगा। शहर की सफाई का आधा काम खुद करने की आदत नागरिकों की डाली हुई ही है। अब बची ठेकेदार की रोटी उस का जुगाड़ होगा मजदूरों को 100 की जगह 70 रुपए दे कर। वेतन भुगतान रजिस्टर पर दस्तखत या तो कराए ही नहीं जाएंगे (फर्जी नामों से फर्जी बनाए जाऐंगे) और कराए गए तो 100 रुपए पर कराए जाएंगे।

पर चूँकि चुनाव का साल है। मजदूर भी सजग है। उस ने सफाई ही बन्द कर दी। तब मामला गरमा गया, महापौर तक गया। उन से पूछने पर कि आपने न्यूनतम वेतन की दर पर ही ठेका कैसे दे दिया? महापौर का जवाब था कि, हम क्या जानें? हम ने तो टेण्डर की न्यूनतम दर पर ठेका दे दिया। अब सारी जिम्मेदारी ठेकेदार की है। मजदूर को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती है तो वे श्रम विभाग को शिकायत करें। और श्रम विभाग? माफ करें वहा आजकल पक्षाघात के कारण अस्पताल में भरती है।

मीडिया की हालत देखने के लिए भास्कर के कोटा संस्करण की ये खबर देखिए। जिस में महापौर का फोटो छपा है, और यह बात कि किसी रेट में ठेका हुआ था?
बड़ी ही सफाई से छिपा दी गई है।

अब आप ये बताएं, कि न्यूनतम मजदूरी, जरुरी खरचे और ठेकेदार का वाजिब मार्जिन जोड़ कर आई राशि से कम में ठेके दे कर यह महापौर जनता का पैसा बचा रहा है या फिर भ्रष्टाचार की मुर्गियों का पोल्ट्री फार्म चला रहा है?

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