कल के आलेख भ्रष्टाचार का पूल पर अनेक प्रतिक्रियायें थीं जिन में टिप्पणीकारों ने कहा था कि उन्हों ने पेशकार को जज के सामने ही रुपए लेते देखा है। यह वाकई शर्मनाक है, लेकिन यह सचाई भी है कि इजलास (Court room) में जज के बैठे हुए ही पेशकार (रीड़र) रुपए लेता है। हालांकि यह भी है कि पेशकार और उसे रुपया देने वाला दोनों ही जज से थोड़ा पर्दा रखते हैं कि रुपए देने का दृष्य कहीं जज को दिखाई न दे जाए। अक्सर दिखाई देता भी नहीं है। लेकिन इस का अर्थ यह नहीं कि जज को यह पता नहीं कि पेशकार रुपया लेता है। उसे सब पता होता है और वे आँख मून्द लेते हैं। हम इस की आलोचना और निन्दा कर सकते हैं। लेकिन यह होता क्यों है? इस का पता भी हमें लगाना चाहिए।
एक अदालत का काम सामान्य रुप से चले इस के लिए यह स्तर निर्धारित है कि निचले स्तर की एक अदालत में 300 से अधिक फौजदारी मुकदमें तथा 250 दीवानी मुकदमे नहीं होने चाहिए। इस से अधिक मुकदमों पर एक नई अदालत खोली जानी चाहिए। लेकिन निचली अदालतों की स्थिति यह है कि वहाँ एक-एक अदालत में 2000 से 10000 तक मुकदमें लम्बित हैं। अब एक अदालत में 25 दिन काम होता है, जिनमें भी कम से कम दो तीन अवकाश हर माह आते हैं। हम यह कह सकते हैं कि कम से कम 20 दिन एक अदालत काम करती है। एक अदालत में अधिक से अधिक 30 मुकदमे एक दिन की सूची में लगाए जाने चाहिए। लेकिन कोई ऐसी अदालत मुश्किल ही मिलेगी जहाँ कम से कम 70-80 मुकदमे रोज सूची में नहीं रखे जाते हों। इन में से कुछ में बहस सुनी जाती है। कुछ में गवाही ली जाती है, कुछ में अन्य कार्यवाहिय़ाँ होती हैं और शेष में पेशी ही बदली जाती है। हम हिसाब करें कि अदालत में 3500 मुकदमें लम्बित हों तो इस तरह एक मुकदमें की सुनवाई के लिए दुबारा दो माह बाद ही आएगा। इन में से कुछ मुकदमे ऐसे हैं कि उन को कुछ जल्दी पेशी देनी होगी तो कुछ को तीन माह की पेशी मिलेगी।
हर व्यक्ति जो न्याय जल्दी चाहता है वह जल्दी की पेशी लेना चाहता है, जो न्याय में देरी करना चाहता है वह देरी की पेशी लेना चाहता है। यह काम पेशकार के जिम्मे होता है। वह किसी पेशी को कम से कम एक या डेढ़ माह आगे पीछे कर सकता है। आम तौर पर यह काम हम वकील लोग पेशकार को समझा कर कर लेते हैं। लेकिन अनेक लोग यह समझते हैं कि पेशकार को दस-बीस-या पचास रुपए दे कर आसानी से यह काम कराया जा सकता है। वे सीधे ही पेशकार को यह रुपया दे कर पेशी आगे बढ़वा कर चल देते हैं। अनेक बार तो यह काम इस तरह होता है कि वकील को पता ही नहीं लगता और मुवक्किल सीधे ही पेशकार से पेशी लेकर चला जाता है। इस से वकीलों को हानि होती है और वे इसे रोकना चाहते हैं, लेकिन उस के बाद भी यह काम बदस्तूर चालू रहता है। उधर जज अपने काम में इतना व्यस्त होता है कि उसे कुछ पता ही नहीं होता, इस के सिवा कि कुछ मुकदमों में पेशकार ने पेशियाँ रुपए ले कर दी हैं। इस पेशी लेने देने से न तो मुकदमे में कोई असामान्य देरी होती है और न उस मुकदमे के निर्णय पर कोई असर होता है। लेकिन पेशकार को अतिरिक्त रुपया बनाने का मौका मिल जाता है।
इस के अलावा भी अनेक अवसर होते हैं। जैसे नया दावा पेश किया गया है। किसी दिन पांच-छह दावे पेश किये गए हैं। पेशकार को उस पर रिपोर्ट करनी है कि दावे में कोई कमी तो नहीं है। इस काम में दस-पन्द्रह मिनट लगते हैं। अन्य कामों के अलावा वह केवल एक-दो या तीन दावों में रिपोर्ट कर सकता है। वह रिपोर्ट के लिए अगले दिन की या दो दिन के बाद की पेशी देता है,.यह एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन दावा पेश करने वाले को तुरंत राहत की जल्दी होती है। वह इस सामान्य प्रक्रिया को तोड़ने या एक दिन में अधिक काम करने के लिए पेशकार को धन देता है। इसी तरह प्रक्रिया को शीघ्र पूरा करने के लिए धन दिया जाता है। अब आप कहेंगे कि जो काम स्वतः ही अदालतों में होन
े चाहिए उन के लिए क्यों रुपया देना पड़ता है। तो उस का कारण यह है कि एक-एक अदालत के पास तीन-चार अदालतों के बराबर काम है वह इसलिए कि सरकार ने हमारे यहाँ जरूरत की चौथाई से भी कम अदालतें स्थापित की हैं।
उधर यह हो रहा है कि अदालतों के पेशकारों, क्लर्कों, चपरासियों को अपने वास्तविक काम के घंटों से कम से कम सवा-डेढ़ा काम करना पड़ रहा है। आप अदालत बंद होने के दो घंटे बाद अदालत की ओर जाएँ, आप को ये लोग अदालतों के काम करते नजर आ जाएंगे। इस के अलावा अवकाश के दिनों में भी काम करते नजर आ जाएंगे। अब कोई व्यक्ति क्यों अतिरिक्त समय काम करेगा? जब तक कि उस के पास कोई प्रेरक शक्ति न हो। यह सौ-दोसौ रुपया जो वे रोज इस तरह से पाते हैं वही उन की प्रेरक शक्ति है। इस तरह पेशकार या क्लर्क को या चपरासी को जो रुपया दिया जा रहा है। उसे रिश्वत या घूस कहा जाना शायद उन लोगों का अपमान होगा। क्यों कि यह रुपया ले कर वे न्याय की प्रक्रिया में कोई बाधा उत्पन्न नही कर रहे होते हैं, बल्कि उस की गति को बढ़ा ही रहे होते हैं। वस्तुतः जिस काम के लिए सरकार को अधिक व्यक्तियों को नियोजित करना चाहिए उसी काम के लिए आधे से भी कम व्यक्ति नियोजित होंगे तो यही होगा। लोग अतिरिक्त काम करेंगे और लोग उन से अतिरिक्त काम कराने के लिए धन भी देंगे। इसे भ्रष्टाचार के स्थान पर लोग शिष्टाचार कहने लगे हैं।
इस सारी व्यवस्था में अनेक लोग ऐसे भी हैं जो रोज एक-दो घंटे अधिक काम करते हैं लेकिन एक पैसा भी इस तरह से स्वीकार नहीं करते। उन्हें उन के ही साथी प्रशंसा की दृष्टि से तो देखते हैं लेकिन उन्हें इस व्यवस्था में मिसफिट भी समझते हैं।
जब तक अदालतों की संख्या पर्याप्त नहीं हो जाती है तब तक यह ऐसा ही चलता रहेगा। इसलिए तीसरा खंबा का सब से बड़ा अभियान यही है कि अदालतों की संख्या और कर्मचारियों की संख्या बढ़ाई जाए। जब तक कि वह पर्याप्त न हो जाए। न्याय-प्रणाली के ऐसे ही अनेक पहलू हैं, जिन के बारे में तीसरा खंबा बात करता रहेगा।