तीसरा खंबा

मुगल कालीन न्याय प्रक्रिया और सबूत : भारत में विधि का इतिहास-10

ब तक आप ने पढ़ा कि मुगल काल में किस तरह से न्याय प्रशासन की व्यवस्था की गई थी। अपने पूर्ववर्ती राज्यों की अपेक्षा मुगल काल में न्याय व्यवस्था अधिक सुदृढ़ थी और न्याय करने के लिए एक निश्चित और क्रमबद्ध प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता था।
दीवानी मामलों में प्रक्रिया
दीवानी मामलों में दावा करने वाले व्यक्ति द्वारा उस के मामले में सक्षम अधिकारिता रखने वाली अदालत के सामने लिखित या मौखिक रूप में दावा पेश किया जाता था। मामले की सुनवाई के समय पक्षकार उपस्थित रहते थे। दावे में वर्णित दावे को विपक्षी स्वीकार या अस्वीकार कर सकते थे। गवाह की सहायता से दावे  तथा प्रतिवाद को साबित करने का अवसर मिलता था। गवाह से जिरह करने का अवसर भी मिलता था। मामले का पूर्ण विचारण होने पर ही अदालत के मुखिया द्वारा खुले न्यायालय में फैसला सुनाया जाता था।
फौजदारी मामलों में प्रक्रिया
फौजदारी मामलों में शिकायत करने वाले द्वारा खुद इस्तगासा (शिकायत) प्रस्तुत किया जा सकता था। मुहतसिब (लोक अभियोजक) भी  मुलजिम के विरुद्ध इस्तगासा पेश करता था। अदालत मुलजिम को तुरंत बुला सकती थी या कुछ साक्ष्य लेने के उपरांत उसे तलब करती थी। मुगल काल के उत्तरार्ध में मुलजिम को रिमांड में रखने की प्रथा आरंभ हो गई थी। साक्ष्य के आधार पर मुकदमे की सुनवाई होती थी। मुलजिम को अपने बचाव का मौका मिलता था। अपराधिक मामले तुंरत तत्परता से निपटाए जाते थे। झूठी शिकायत पर किसी भी व्यक्ति को बंदी नहीं बनाया जा सकता था।  यदि सुनवाई की निश्चित तिथि पर शिकायतकर्ता सुनवाई में हाजिर नहीं होता था तो मुलजिम को बरी कर दिया जाता था।
सबूत
किसी भी मामले को साबित करने के लिए सबूत के तौर पर दो गवाह आवश्यक होते थे। स्त्री की अपेक्षा पुरुष, सुनी हुई बात बताने वाले के स्थान पर चश्मदीद, अन्य धर्मावलम्बी के स्थान पर मुसलमान गवाह को महत्व दिया जाता था। गवाह होने के लिए बालिग, निष्पक्ष, सच्चरित्र, विवेकशील होना जरूरी शर्त थी। नाबालिग, उन्मादी, पागल, जुआरी, शराबी, स्वच्छंद, चिंतक, व्यावसायिक गायक, झूठ बोलने वाला, अपराधी और रिश्तेदार को अयोग्य गवाह माना जाता था। मुस्लिम पक्षकार के विरुद्ध हिन्दू गवाह मान्य नहीं होते थे। दस्तावेजी सबूत पर मौखिक सबूत को तरजीह दी जाती थी। पक्षकारों की उपस्थिति में गवाही लिखी जाती थी। न्याय करने के लिए केवल दस्तावेजों और गवाहों को ही आधार नहीं माना जाता था बल्कि अन्य उपायों द्वारा भी जाँच-पड़ताल और मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाता था।
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