1670 की न्यायिक योजना के अंतर्गत मुम्बई में दो न्यायालय स्थापित किए गए। एक सीमाशुल्क अधिकारी का न्यायालय और दूसरा सपरिषद उपराज्यपाल का न्यायालय।
सीमाशुल्क अधिकारी का न्यायालय
मुम्बई को प्रशासनिक दृष्टि से दो भागों में बांटा गया था। एक में मुम्बई, मझगाँव, गिरगाँव थे तो दूसरे में माहीम, सायन, वर्ली और परेल। दोनों में सीमाशुल्क अधिकारी के एक-एक खंड न्यायालय स्थापित किए गए। प्रत्येक न्यायालय में पाँच-पाँच न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई थी। अंग्रेज न्यायाधीशों की अनुपलब्धता और भारतियों में अंग्रेजी को लोकप्रिय बनाने के लिए इन में भारतीय न्यायाधीशों को नियुक्त करने की परंपरा आरंभ की गई। न्यायालय में गणपूर्ति के लिए तीन न्यायाधीश जरूरी थे। सभी न्यायाधीश अवैतनिक थे। न्यायालय की बैठक सप्ताह में एक बार होती थी और मुकदमो की सुनवाई का अभिलेख रखा जाता था जिस की प्रति प्रत्येक तिमाही पर सपरिषद उपराज्यपाल को प्रेषित की जाती थी।
इस न्यायालय को पाँच जैराफिन (पुर्तगाली मुद्रा) तक की चोरी सहित छोटे अपराधों और 200 जैराफिन मूल्य तक के सिविल मामलों की सुनवाई का अधिकार दिया गया था। इस न्यायालय के निर्णयों की अपील सपरिषद उपराज्यपाल के न्यायालय को प्रस्तुत की जा सकती थी।
सपरिषद उपराज्यपाल का न्यायालय
इस न्यायालय में उपराज्यपाल ओर उस की परिषद मामलों की सुनवाई करती थी और इसे सीमाशुल्क अधिकारी के न्यायालय के निर्णयों की अपील और उस की अधिकारिता की सीमा के बाहर के मुकदमे प्रारंभिक रूप से सुनने का अधिकार था। कंपनी द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता था। और महत्वपूर्ण मामलों में जूरियों द्वारा सुनवाई की जाती थी। मुम्बई में पहला जूरी विचारण जेरॉल्ड आंगियार की अध्यक्षता में किया गया था। अंग्रेज नागरिकों के मामले केवल यही न्यायालय सुन सकता था। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि कंपनी के कर्मचारियों को न्यायालय से हानि न उठानी पड़े। न्यायालय की कार्यवाही का अभिलेख रखा जाता था। इस न्यायालय की अपील सूरत के सपरिषद राज्यपाल को की जा सकती थी। लेकिन कोई अपील वहाँ प्रस्तुत की गई हो इस की कोई साक्ष्य नहीं मिलती है।
1670 की इस न्यायिक योजना में अनेक दोष थे। इस के द्वारा कार्यपालिका और न्यायपालिका में अंतर नहीं किया जा सका था। सामान्य नागरिकों को न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया था, जो विधि और प्रक्रिया से अनभिज्ञ थे और मनोगत तरीके से निर्णय करते थे। कार्यपालिका का न्याय पर प्रभावी नियंत्रण होने के कारण न्याय की निष्पक्षता पर विश्वास उत्पन्न नहीं हो सका था। स्वयं जेरॉल्ड आंगियार भी इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं था। उस ने कंपनी से अनेक बार विधि दक्ष लोगों को न्यायाधीश नियुक्त करने का आग्रह किया। किन्तु उस पर ध्यान नहीं दिया गया। बाद में मंजूरी मिलने पर उस ने विधिवेत्ता बिलकॉक्स की नियुक्ति की। अंग्रेजी विधि के अनुसार कानून बनाने का अधिकार तो कंपनी को दिया गया था, लेकिन पुर्तगाली विधियों को समाप्त करने की घोषणा नहीं
की गई जिस से विधि के प्रवर्तन के मामले में असमंजस बना रहा और न्याय में अवरोध उत्पन्न हुआ। अधीनस्थ न्यायालय पुर्तगाली विधि को प्रवृत्त करने को उत्सुक रहते थे। न्यायाधीश अवैतनिक होने से भ्रष्टाचार की गुंजाइश बनी रहती थी। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस न्यायिक योजना से अंग्रेजी विधि का बीजारोपण हो गया था और भारतियों को न्यायाधीश नियुक्त करने की परंपरा आरंभ हो गई थी।
की गई जिस से विधि के प्रवर्तन के मामले में असमंजस बना रहा और न्याय में अवरोध उत्पन्न हुआ। अधीनस्थ न्यायालय पुर्तगाली विधि को प्रवृत्त करने को उत्सुक रहते थे। न्यायाधीश अवैतनिक होने से भ्रष्टाचार की गुंजाइश बनी रहती थी। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस न्यायिक योजना से अंग्रेजी विधि का बीजारोपण हो गया था और भारतियों को न्यायाधीश नियुक्त करने की परंपरा आरंभ हो गई थी।
चित्र – जेरॉल्ड आंगियार द्वारा निर्मित सायन फोर्ट के दो चित्र