तीसरा खंबा

लॉर्ड हेस्टिंग्स के सुधार : भारत में विधि का इतिहास-56

लॉर्ड हेस्टिंग्स को 1813 में बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। वह एक कुशल प्रशासक और कुशाग्र बुद्धि का व्यक्ति था। उस ने तत्कालीन न्यायिक व्यवस्था का अध्ययन किया और उसे उपयुक्त बनाने के यत्न आरंभ किए। उस के कार्यग्रहण करने के समय न्यायिक व्यवस्था की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा था। मुकदमे बहुत देरी से निर्णीत होने लगे थे। लोगों का न्यायालयों पर से विश्वास उठ गया था। लोग शक्ति के आधार पर अपने मामलों का निपटारा करने लगे थे। अराजकता का माहौल सर्वत्र व्याप्त था। लॉर्ड कॉर्नवलिस ने जमींदारों को जो न्यायिक अधिकार दिए थे उन का वे दुरुपयोग करते थे। त्रस्त किसान जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध अदालतों के दरवाजे खटखटाते थे। दीवानी अदालतें काम की अधिकता के कारण उन्हें न्याय प्रदान करने में अक्षम रहती थीं। मुकदमे निर्णीत होने में लगने वाली असीमित देरी के कारण जमींदारों के अत्याचार जारी रहते थे।  किसान दूर दूर से चल कर अदालत में नालिश करते थे लेकिन वहाँ भी न्याय नहीं मिलता था।  इस से किसानों में भारी रोष व्याप्त था। हेस्टिंग्स ने इस समस्या को समझा और पाया कि आर्थिक कारणों से अधिक न्यायालय स्थापित न करने की नीति उचित नहीं है। 
दांडिक न्याय प्रशासन की स्थिति भी दयनीय थी। विस्तृत क्षेत्रों के लिए मात्र चार सर्किट न्यायालय अपर्याप्त थे। न्यायालयों को दीवानी और फौजदारी दोनों दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता था। सर्किट न्यायालय वर्ष में केवल दो बार एक स्थान पर विचारण कर पाते थे। तब तक बंदियों को प्रतीक्षा करनी होती थी और लंबे समय तक जेल में रहना होता था। विचारण में होने वाले विलंब और कठिनाइयों के कारण लोग अपराध की सूचना पुलिस को देने से बचने लगे थे और हानि सहन करना उचित समझने लगे थे। 
1813 का अधिनियम
भारत में कंपनी के कामकाज की अवधि बढ़ाने के लिए 1813 का अधिनियम पारित किया गया जिस से कंपनी के भारत में कामकाज की अवधि को 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। अब भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों के भू-राजस्व एकत्र करने का दायित्व कंपनी को मिल गया था लेकिन अंतिम प्रभुता ब्रिटिश साम्राज्य में ही निहीत की गई थी। 
सदर दीवानी अदालत और प्रांतीय न्यायालय के ढाँचे में पुनः परिवर्तन 
हेस्टिंग्स ने वेलेजली के 1807 के विनियम में संशोधन कर सदर दीवानी अदालत की अध्यक्षता का दायित्व पुनः गवर्नर जनरल और उस की परिषद के सदस्यों को सौंप दिया। अब 50000 रुपए और उस से अधिक मूल्य के वाद सदर दीवानी अदालत में सीधे प्रस्तुत किए जा सकते थे। सभी मामलो में निर्णय की अपीलें किंग इन कौंसिल को की जा सकती थी। 1814 में 25 वें विनियम को संशोधित कर व्यवस्था की गई कि सदर दीवानी अदालत में प्रान्तीय अथवा सर्किट न्यायालय में तीन वर्ष कार्य करने का अनुभव होने पर अथवा न्यायिक कार्यों का 9 वर्षों अनुभव होने पर ही  किसी व्यक्ति को न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा। 
सी संशोधन के माध्यम से प्रान्तीय सर्किट न्यायालय को 5000 रुपए से अधिक और 50000 रुपए से कम  मूल्य के  दीवानी मामलों की सुनवाई का अधिकार दिया गया था। 1000 रुपए से अधिक मूल्य के जिला दीवानी अदालतों में लंबित किसी भी मामले को सदर दीवानी अदालत सुनवाई के लिए प्रान्तीय न्यायालय को अंतरित कर सकती थी। प्रान्तीय न्याय