किसी व्यक्ति का देहान्त कोई वसीयत लिखे बिना हो जाता है तो उस के द्वारा छोड़ी गई संपत्ति उस व्यक्ति पर प्रभावी व्यक्तिगत विधि अर्थात हिन्दू सक्सेशन एक्ट/मुस्लिम पर्सनल लॉ के उपबंधों के अनुसार उस के उत्तराधिकारियों का स्वामित्व स्थापित हो जाता है। यदि एक से अधिक उत्तराधिकारी हों तो वे सभी उस संपत्ति के संयुक्त स्वामी हो जाते हैं। फिर संपत्ति का बँटवारा व्यक्तिगत विधि के अनुसार होता है न कि दिवंगत व्यक्ति की इच्छानुसार।
मृतक व्यक्ति का जो धन बैंक, बीमा आदि संस्थाओं या सरकारी विभागों में जमा होता है, जो कर्जा दिया हुआ होता है और जो कर्जा लिया हुआ होता है (Securities & Liabilities) उन सब के संबंध में जिला न्यायालय से उत्तराधिकार प्रमाण पत्र प्राप्त करना होता है तभी वे धन उस व्यक्ति को प्राप्त होते हैं जो उत्तराधिकार प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेता है। उत्तराधिकार प्रमाण पत्र के लिए एक लंबी न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना होता है जिस के कारण उसे प्राप्त करने में छः माह से एक वर्ष तक का और कभी कभी एकाधिक दावेदार होने पर उस से भी अधिक समय लग जाता है। उत्तराधिकार प्रमाण पत्र प्राप्त करने में व्यक्ति को न सिर्फ अपना समय अपितु (Securities & Liabilities) के कुल मूल्य का 8 से 10 प्रतिशत तक का या उस से अधिक खर्च कोर्ट फीस, अन्य न्यायिक खर्च व वकील की फीस के रूप में करना होता है।
जो चल संपत्ति नकदी और वस्तुओं के रूप में मृतक छोड़ जाता है उस पर परिवार के अथवा परिवार के बाहर के किसी भी व्यक्ति का कब्जा स्थापित हो जाता है। तब यह साबित करना कठिन हो जाता है कि वे वस्तुएँ और नकदी मृतक की ही थीं और उन पर उस के उत्तराधिकारियों का स्वामित्व है।
जो अचल संपत्ति मकान जमीन आदि के रूप में होती है उन्हें उत्तराधिकारियों को आपस में बाँटने के लिए आपसी सहमति से बँटवारा कर उसे उप पंजीयक के यहाँ पंजीकृत कराना होता है। सहमति न होने पर बँटवारे का मुकदमा करना होता है जिस के निर्णय में कई वर्ष गुजर जाते हैं। जिस में उन का धन और समय खर्च होता है। इस बीच जो व्यक्ति संपत्ति पर काबिज होता है वही उस का उपयोग अपने हित में करता रहता है। वास्तविक उत्तराधिकारी उस के उपयोग से वंचित रह जाते हैं।
कई बार तो यह होता है कि उत्तराधिकारियों को मृतक की संपत्ति के बारे में जानकारी ही नहीं होती है जिस से उस संपत्ति को प्राप्त करना उन के ले कठिन हो जाता है और उस संपत्ति से वंचित भी हो सकता है। वसीयत न होने पर उत्तराधिकारियों की टैक्स प्लानिंग की गुंजाइश समाप्त हो जाती है और उत्तराधिकारी पर्याप्त टैक्स बचत नहीं कर पाते हैं, जबकि वसीयत होने पर उत्तराधिकारी अपनी टैक्स प्लानिंग सही ढंग से कर सकते हैं।
अधिकांश व्यक्ति वसीयत नहीं बनाते क्योंकि उनका मानना होता है कि उनके पास अधिक संपत्ति नहीं है एवं जो संपत्ति है, उसमें उन्होंने नॉमिनेशन कर रखा है। जबकि नॉमिनी केवल ट्रस्टी की हैसियत से ही संपत्ति प्राप्त कर सकता है। नॉमिनेशन कर दिए जाने से मृत्यु उपरांत नॉमिनी को संपत्ति पर अधिकार प्राप्त नहीं होता है और उस का कानूनी कर्तव्य यह होता है कि वह उस संपत्ति को उस के सही व कानूनी उत्तराधिकारियों को सौंप दे। यदि कोई व्यक्ति नोमिनेशन कर के यह समझता है कि उस से उस की संपत्ति नामिनी को मिल जाएगी। जब कि उस पर नामिनी का अधिकार नहीं होता है। जिस संपत्ति के लिए नामिनी निर्धारित कर दिया गया है उस की भी वसीयत लिखनी चाहिए।
अब इस आलेख के पाठक खुद यह तय कर सकते हैं कि वसीयत कब करनी चाहिए? कोई भी व्यक्ति जिस की आयु 18 वर्ष या उस से अधिक हो गई है वह अपनी वसीयत करने के लिए सक्षम है। इस कारण से जो भी व्यक्ति संपत्ति रखता है उसे अपनी वसीयत जल्दी से जल्दी कर देनी चाहिए। जरूरत पड़ने पर दूसरी वसीयत की जा सकती है जिस से पहले वाली निरस्त हो जाती है। मेरी राय में 18 वर्ष या उस से अधिक आयु के मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों को जिन के भी संपत्ति हो या जिन का धन बैंक में जमा हो या जीवन बीमा पॉलिसी अथवा अन्य सीक्योरिटीज हों उन्हें तुरन्त अपनी वसीयत आवश्यक रूप से लिख देना चाहिए। अब आप क्या सोच रहे हैं? यदि अब तक आप ने अपनी वसीयत नहीं बनाई है तो तुरन्त बना दें।