तीसरा खंबा

सभी प्रबंधन चाहते हैं कि श्रमिक विभाजित रहें।

समस्या –

लगभग सभी सरकारी कम्पनियों में यह देखने को मिलता है कि अनुसूचित जाति जनजातियों के कर्मचारी अपने लिये कल्याण समिति के नाम पर अपना समिति बनाकर प्रबंधन से अपने लाभ, अधिकार के लिये बात कर अपनी मांग मनवाते हैं। ऐसा क्यों जबकि संस्थानो में सभी कर्मचारीयो के अधिकारों के लिये श्रम संघ ज्यादा अच्छा काम करता है।  ऐसा कौन सा कानूनी अधिकार है जिसके तहत st sc के कर्मचारी अपने लिये अलग से समिति, संघ बनाकर अपनी बात मनवाते हैं और प्रबंधन भी इन्हें  सुनने के लिये मजबूर रहता है?

– व्ही.के.कश्यप, किरन्दुल नगर, जिला दन्तेवाड़ा, छत्तीसगढ़

समाधान-

किसी भी उद्योग के श्रमिकों को ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार ट्रेड यूनियन अधिनियम देता है। आप जिन श्रम संघों की बात करते हैं वे सभी ट्रेड यूनियनें हैं और ट्रेड यूनियन अधिनियम में पंजीकृत होते हैं। एक ही उद्योग में एक से अधिक पंजीकृत यूनियनें हो सकती हैं।  एक उद्योग में श्रमिकों के अलग अलग सैट्स के लिए अलग अलग यूनियनें पंजीकृत हो सकती हैं और होती हैं।

आप जिस समिति की बात कर रहे हैं उन के नाम में समिति होने से यह समझ आता है कि वे ट्रेड यूनियनें नहीं हैं क्यों कि ट्रेड यूनियन होती तो उन के नाम में यूनियन, संघ जैसे शब्द होते। उन में समिति शब्द है इस से लगता है कि वे सोसायटीज एक्ट में पंजीकृत समिति हैं। लोगों का कोई भी समूह सदस्यों के कल्याण के लिए समिति बना कर उसे पंजीकृत करवा सकता है। एक बार ट्रेड यूनियन अथवा समिति के रूप में पंजीकृत होने पर दोनों को ही अलग विधिक व्यक्ति  स्थिति मिल जाती है। जिस से उन के नाम से दावा आदि करने और उन के विरुद्ध दावे आदि किए जाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

इस तरह यदि अनुसूचित जाति जनजाति के लोग अपने लिए अलग समिति या ट्रेड यूनियन बनाते हैं तो यह विधि द्वारा बाधित नहीं है। ट्रेड यूनियन और समिति में यह फर्क होता है कि ट्रेड यूनियनों,  उन के पदाधिकारियों और सदस्यों को कुछ विशिष्ट अधिकार ट्रेड यूनियन एक्ट में प्राप्त होते हैं वे समिति, उस के पदाधिकारियों या सदस्यों को प्राप्त नहीं होते हैं।

अब प्रश्न यह है कि उद्योग के प्रबंधक उन्हें अलग से क्यों सुनते हैं? तो हर प्रबंधन चाहता है कि श्रमिक एक यूनियन में मजबूती से संगठित नहीं हों और उन के अनेक सैट हों। जिस से श्रमिकों की ताकत विभाजित रहे। इस कारण वे हर अलग संगठन  को भले ही मान्यता न दें लेकिन प्रश्रय अवश्य देते हैं। प्रबंधक किसी को सुनने को मजबूर नहीं रहता। वह जो भी करता है वह प्रबंधकीय नीति के अंतर्गत करता है। पूंजीवाद के इस युग में उद्योग चाहे निजी हों, कारपोरेट हों या फिर सार्वजनिक क्षेत्र के हों ट्रेडयूनियनों से भी घबराते हैं और श्रमिकों की ताकत विभाजित रहे इस का लगातार सायास प्रयास करते रहते हैं।

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