आज सुबह घर से निकलने के पहले भोजन के समय टीवी पर समाचार था कि जबलपुर में एक व्यक्ति ने अपने छह परिजनों और उस के बाद पड़ौसी की हत्या कर दी। स्क्रीन पर हत्यारे को दिखाया भी जा रहा था। प्रभात खबर में छपा समाचार पढ़ सकते हैं। चित्र पर क्लिक कर के आप बड़ा कर इसे पढ़ सकते हैं और यहाँ क्लिक कर के मूल समाचार पर पहुँच सकते हैं।
एक दो दिनों में समाचार के पीछे की कथा पूरी तरह खुल कर आएगी। अभी जो कुछ सामने आया है वह यह कि इस का पड़ौसी के साथ नाली को ले कर झगड़ा था। जिस के कारण रोज झगड़े होते थे। इस की शिकायत इस व्यक्ति ने संबंधित अधिकारियों से और पुलिस से भी की थी। समस्या हल न हुई और झगड़ा बढ़ता गया। इस से उत्पन्न तनाव और झगड़े को समाप्त करने का उसे एक ही उपाय दिखाई दिया जो उस ने कर डाला।
इस तरह के झगड़ों को मैं ने अपने वकालत के 30 वर्ष से अधिक के जीवन में बहुत देखा है। मैं अनुभव से अनुमान कर सकता हूँ कि इस मामूली समस्या से जो रोज-रोज या कुछ दिनों के अंतराल से उस के सामने आती होगी निजात पाने का हर संभव प्रयास वह कर चुका होगा। वह थाने भी गया होगा। उस ने सोसायटी में भी शिकायत की होगी और नगर निगम को भी। हो सकता है वह अदालत तक भी पहुँचा हो। ये सारी संस्थाएँ उस की उस समस्या को हल नहीं कर सकीं। वह व्यक्ति लड़ते-लड़ते थक गया। हो सकता है झगड़े में हत्यारे का पक्ष बहुत ही न्यायपूर्ण हो। लेकिन उसे कहीं से भी न्याय नहीं मिला। नाली को लेकर उस के परिजनों से भी झगड़ा होता होगा और वे तुरंत उसे खबर करते होंगे, उसे धंधा छोड़ कर झगड़े में लौटना पड़ता होगा या सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते होंगे।
यह हमारी न्याय प्रणाली की असफलता का नतीजा है। यदि न्यायप्रणाली ऐसी हो कि कोई भी वहाँ शिकायत ले कर जाए और उस का तार्किक और न्यायपूर्ण हल खोज दिया जाए तो इस तरह के तनाव उत्पन्न ही न होंगे। इस से भी पहले यदि सोसायटी का प्रबंधन, नगर निगम और पुलिस इस समस्या में हस्तक्षेप करती और हल प्रदान करती तो अदालत तक जाने की नौबत ही न आती। मैं अक्सर कहता हूँ कि न्याय मनुष्य के लिए रोटी कपड़ा और मकान से पहले की चीज है। यदि इन वस्तुओं की कमी है, लेकि
न बंटवारा न्यायपूर्ण है तो कमी को सहन किया जा सकता है। लेकिन यदि व्यवस्था में न्याय नहीं है तो हम लड़-लड़ कर ही मर जाएँगे।
न बंटवारा न्यायपूर्ण है तो कमी को सहन किया जा सकता है। लेकिन यदि व्यवस्था में न्याय नहीं है तो हम लड़-लड़ कर ही मर जाएँगे।
इतना होने पर भी हमारी सरकारों को कोई सुध नहीं है। देश में पर्याप्त पुलिस नहीं है, नगर निगमों में पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं और अदालतें वह तो जरूरत की चौथाई भी नहीं हैं। देश अराजकता के पथ पर कदम बढ़ा चुका है। यदि इन हालातों पर जल्दी काबू न पाया गया तो देश जल्दी ही काबू न कर पाने लायक अराजकता के सागर में गोते लगा रहा होगा।